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पद्मपुराणे
इत्यवगम्य दुःखकुशलाद्विरमत दुरितात् सजत सारशर्मचतुरे जिनवरचरिते । एष तपस्यहो परिदृढं जगदनवरतं व्याधिसहस्ररश्मिनिकरो ननु जननरविः ॥४०६॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते हनूमत्संभवाभिधानं नाम सप्तदर्श पर्व ॥१७॥
स्त्रियोंकी सुकोमल भुजलता बन जाती है ।।४०५।। ऐसा जानकर दुःख देने में निपुण जो पापकर्म है उससे विरत होओ और श्रेष्ठ सुख देनेमें चतुर जो जिनेन्द्रदेवका चरित है उसमें लीन होओ। अहो! हजारों रोगरूपी किरणोंसे युक्त यह जन्मरूपी सूर्य समस्त संसारको निरन्तर बड़ी दृढ़ताके साथ सन्तप्त कर रहा है ।।४०६॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरितमें हनूमान्के
जन्मका वर्णन करनेवाला सत्रहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।१७॥
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