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सप्तदशं पर्व प्रतिसूर्यस्ततोऽवोचदहो चित्रमिदं परम् । वज्रेणेव यदेतेन शिलाजातं विचूर्णितम् ॥३९५॥ अर्भकस्य सतोऽप्येषा शक्तिः सुरवरातिगा । यौवनस्थस्य किं वाच्यं चरमेयं ध्रुवं तनुः ॥३९६॥ इति ज्ञात्वा परीत्य त्रिः शिरःपाणिसरोरुहः । सहाङ्गनासमूहेन चकारास्या नमस्कृतिम् ॥३९७।। असौ तस्य वरस्त्रीभिनेत्रमामिः कृतस्मितम् । सितासितारुणाम्भोजमालाभिरिव पूजितम् ॥३९८॥ सपुत्रां यानमारोप्य भागिनेयीं ततोऽगमत् । प्रतिसूर्यो निजं स्थानं ध्वजतोरणभूषितम् ॥३९९॥ ततः प्रत्युद्गतः पौरै नामङ्गलधारिभिः । स विवेश पुरं तूर्यनादव्याप्तनमस्तलम् ।।४००॥ तत्र जन्मोत्सवस्तस्य महान् विद्याधरैः कृतः । आखण्डलसमुत्पत्तौ गीर्वाणस्त्रिदशर्यथा ।।४०१॥ जन्म लेभे यतः शैले शैलं चाचूर्णयत्ततः । श्रीशैल इति नामास्य चक्रे मात्रा ससूर्यया ॥४०२॥ पुरे हनूरुहे यस्माज्जातः संस्कारमाप्तवान् । हनूमानिति तेनागात्प्रसिद्धिं स महीतले ॥४०३।। सर्वलोकमनोनेत्रमहोत्सववपुःक्रियः । तस्मिन् सुरकुमारामः पुरे रेमे सुकान्तिमान् ।।४०४।।
संभवतीह भूधररिपुः पविरपि कुसुमं वतिरपीन्दुवादशिशिरं पृथु कमलवनम् । खड्गलतापि चारुवनितासुमृदुभुजलता प्राणिषु पूर्वजन्मजनितात्सुचरितबलतः ॥४०५॥
शरीरके धारक बालकको आश्चर्यसे भरी माताने उठाकर तथा शिरपर सूंघकर छातीसे लगा लिया ॥३९४॥ राजा प्रतिसूर्यने कहा कि अहो ! यह बड़ा आश्चर्य है कि बालकने वज्रकी तरह शिलाओंका समूह चूर्ण कर दिया ॥३९५।। जब बालक होनेपर भी इसकी यह देवातिशायिनी शक्ति है तब तरुण होनेपर तो कहना ही क्या है ? निश्चित ही इसका यह शरीर अन्तिम शरीर है ॥३९६|| ऐसा जानकर उसने, हस्त-कमल शिरसे लगा, तथा तीन प्रदक्षिणाएँ देकर अपनी स्त्रियोंके साथ बालकके उस चरम शरीरको नमस्कार किया ॥३९७।। प्रतिसूर्यको स्त्रियोंने अपने सफेद, काले तथा लोल नेत्रोंकी कान्तिसे उसे हँसते हुए देखा सो ऐसा जान पड़ता था मानो उन्होंने सफेद, नीले और लाल कमलोंकी मालाओंसे उसकी पूजा ही की हो ॥३९८॥
तदनन्तर प्रतिसूर्य पूत्रसहित अंजनाको विमानमें बैठाकर ध्वजाओं और तोरणोंसे सुशोभित अपने नगरकी ओर चला ॥३२९।। तत्पश्चात् नाना मंगलद्रव्योंको धारण करनेवाले नगरवासी लोगोंने जिसकी अगवानी की थी ऐसे राजा प्रतिसूर्यने नगरमें प्रवेश किया। उस समय नगरका आकाश तुरही आदि वादित्रोंके शब्दसे व्याप्त हो रहा था ॥४००। जिस प्रकार इन्द्रका जन्म होनेपर स्वर्गमें देव लोग महान् उत्सव करते हैं उसी प्रकार हनूरुह नगर में विद्याधरोंने उस बालकका बहुत भारो जन्मोत्सव किया ॥४०१।। चूंकि बालकने शैल अर्थात् पर्वतमें जन्म प्राप्त किया था और उसके बाद शैल अर्थात् शिलाओंके समूहको चूर्ण किया था इसलिए माताने मामाके साथ मिलकर उसका 'श्रीशैल' नाम रखा था ॥४०२॥ चूंकि उस बालकने हनूरुह नगरमें जन्म संस्कार प्राप्त किये थे इसलिए वह पृथिवीतलपर 'हनूमान्' इस नामसे भी प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ ||४०३।। जिसके शरीरकी क्रियाएँ समस्त मनुष्योंके मन और नेत्रोंको महोत्सव उत्पन्न करनेवाली थी, तथा जिसकी आभा देवकुमारके समान थी ऐसा वह उत्तम कान्तिका धारी बालक उस नगरमें क्रीड़ा करता था ॥४०४।।
__ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! पूर्व जन्म में संचित पुण्य कर्मके बलसे प्राणियोंके लिए पर्वतों को चूर्ण करनेवाला वज्र भी फूलके समान कोमल हो जाता है। अग्नि भी चन्द्रमाकी किरणोंके समान शीतल विशाल कमलवन हो जाती है, और खड्गरूपी लता भी सुन्दर
१. वज्रणव म.।
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