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सप्तदशं पर्व
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आदित्यो वर्तते मेषे भवनं तुङ्गमाश्रितः। चन्दमा मकरे मध्ये भवने समवस्थितः ॥३६५।। लोहिताङ्गो वृषमध्ये मध्ये मीने विधोः सुतः । कुलोरे धिषणोऽत्युच्चैरध्यास्य भवनं स्थितः ॥३६॥ मीने दैत्यगुरुस्तुङ्गस्तस्मिन्नेव शनैश्चरः । मीनस्यैवोदयोऽप्यासीत्तदा नृपतिपुङ्गवे ॥३६७॥ अनैश्चरं समग्राक्षस्तिग्मभानुनिरीक्षते । अर्धदृष्ट्या महीपुत्रो दिवसस्य पतिं तथा ॥३६८॥ गुरुः पादोनया दृष्ट्या पतिमहोऽवलोकते । अर्धदृष्ट्या गिरामीशं वासरस्येक्षते विभुः ॥३६९।। चन्द्रं समस्तया दृष्ट्या वचसा पतिरीक्षते । असावप्येवमेवास्य विदधात्यवलोकनम् ॥३७०॥ गुरुः शनैश्चरं पादन्यूनया वीक्षते दृशा । अर्धावलोकनेनासौ मजते बृहतां पतिम् ॥३७१॥ गुरुदैत्यगुरुं दृष्ट्वा वीक्षते पादहीनया । दृष्टिं तथाविधामेव पातयत्येष तत्र च ॥३७२॥ ग्रहाणां परिशिष्टानां नास्त्यपेक्षा परस्परम् । उदयक्षेत्रकालानां बलं चास्ति परं तदा ॥३७३॥ राज्यं निवेदयत्यस्य रविभौमो गुरुस्तथा । शनैश्वरः सुयोगित्वं निवेदयति सिद्धिदम् ॥३७॥ एकोऽपि भारतीनाथ स्तुङ्गस्थानस्थितो भवन् । सर्वकल्याणसंप्राप्तौ कारणत्वं प्रपद्यते ॥३७५।। ब्राह्मो नाम तदा योगो मुहूर्तश्च शुभश्रुतिः । एतौ कथयतो ब्राह्मस्थानसौख्यसमागमम् ॥३७६॥ एवमेतस्य जातस्य ज्योतिश्चक्रमिदं स्थितम् । सूचयत्यखिलं वस्तु सर्वदोषविवर्जितम् ॥३७७।। "रैशतानां सहस्रेण कालज्ञं पूजितं ततः। प्रतिसूर्यो विधायोचे भागिनेयीं ससंमदः ॥३७८।। एहीदानी पुरं यामो वत्से हनूरुहं मम । जातकर्मास्य बालस्य तत्र सर्व भविष्यति ।।३७९।। एवमुक्ता विधायाङ्के पृथुकं जिनवन्दनाम् । कृत्वा स्थानपतिं देवं क्षमयित्वा पुनः पुनः ॥३८०॥
यह चैत्रके कृष्ण पक्षकी अष्टमी तिथि है, श्रवण नक्षत्र है, सूर्य दिनका स्वामी है ।।३६४।। सूर्य मेषका है सो उच्च स्थानमें बैठा है और चन्द्रमा मकरका है सो मध्यगृहमें स्थित है ॥३६५।। मंगल वृषका है सो मध्य स्थानमें बैठा है। बुध मीनका है सो भी मध्य स्थानमें स्थित है और बृहस्पति कर्कका है सो भी अत्यन्त उच्च स्थानमें बैठा है ॥३६६|| शुक्र और शनि दोनों ही मीनके
तथा उच्च स्थानमें आरूढ हैं। हे राजाधिराज! उस समय मीनका ही उदय था ॥३६७॥ सूर्य पूर्ण दृष्टिसे शनिको देखता है और मंगल सूर्यको अर्धदृष्टिसे देखता है ॥३६८।। बृहस्पति पौन दृष्टिसे सूर्यको देखता है और सूर्य बृहस्पतिको अर्धदृष्टिसे देखता है ।।३६९।। बृहस्पति चन्द्रमाको पूण दृष्टिसे देखता है और चन्द्रमा भी अर्धदृष्टिसे बृहस्पतिको देखता है ।।३७०।। बृहस्पति शनिको पौन दृष्टिसे देखता है और शनि बृहस्पतिको अधंदृष्टिसे देखता है ॥३७१॥ बृहस्पति शुक्रको पौन दृष्टिसे देखता है और शुक्र भो बृहस्पतिपर पौन दृष्टि डालता है ॥३७२॥ अवशिष्ट ग्रहोंकी पारस्परिक अपेक्षा नहीं है। उस समय इसके ग्रहोंके उदय-क्षेत्र और कालका अत्यधिक बल है ॥३७३।। सूर्य, मंगल और बृहस्पति इसके राज्ययोगको सूचित कर रहे हैं और शनि मुक्तिदायी योगको प्रकट कर रहा है ।।३७४। यदि एक बृहस्पति ही उच्च स्थानमें स्थित हो तो समस्त कल्याणकी प्राप्तिका कारण होता है फिर इसके तो समस्त शभग्रह उच्च स्थानमें स्थित हैं ॥३७५॥ उस समय ब्राह्मनामक योग और शुभ नामका मुहूर्त था सो ये दोनों ही बाह्यस्थान अर्थात् मोक्ष सम्बन्धी सुखके समागमको सूचित करते हैं ॥३७६।। इस प्रकार इस पुत्रका यह ज्योतिश्चक्र सर्व वस्तुको सर्व दोषोंसे रहित सूचित करता है ॥३७७॥ तदनन्तर राजाने हजार मुद्रा द्वारा ज्योतिषीका सम्मान कर हर्षित हो अंजनासे कहा कि ॥३७८।। आओ बेटी! अब हम लोग हनूरुह नगर चलें। वहीं इस बालकका सब जन्मोत्सव होगा ॥३७९।। मामाके ऐसा कहनेपर अंजना पुत्रको १. नृपपुङ्गवः म.। २. निरीक्षितः म.। ३. मङ्गलग्रहः । ४. गुरुपादनया म.। ५. चन्द्रसमस्तया म.। ६. बृहस्पतिः । ७. विदधत्यवलोकनम् । ८. वीक्ष्यते म., ज.। ९. राज्यं निवेदयंस्तस्य रविभूमौ गुरुस्तथा म.,ब., क., ज. । १०. गुरुः । ११. धनशतानाम् । १२. विधायाङ्कपथकं म. ।
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