________________
पद्मपुराणे
निष्क्रान्ता सा गुहावासात् स्वजनौघसमन्विता । वनश्रीरिव जाता च विमानस्यान्तिकं स्थिता ॥ ३८१ ॥ ततस्तस्किङ्किणीजालैः' प्रक्वणस्पवनेरितैः । सनिर्झरमिवोदारैर्मुक्ताहारैः सुनिर्मलैः ॥ ३८२॥ ललल्लम्बूषकं काचकदलीवनराजितम् । दिवाकरकरस्पर्श स्फुरत्कनकबुद्बुदम् ||३८३|| नानारत्नकरासङ्गजा तानेकसुरायुधम् । बैजयन्तीशतैर्नानावर्णैः कल्पतरूपमम् ॥ ३८४ ॥ चित्ररत्नविनिर्माणं नानारत्नसमाचितम् । दिव्यं परिवृत स्वर्गलोकेनेव समन्ततः ।। ३८५|| दृष्ट्वा पृथुको मातुरङ्कात् कौतुकसस्मितः । उत्पत्य प्रविविक्षुः सन्नपप्तगिरिगह्वरे ॥ ३८६|| हाहाकारं ततः कृत्वा लोकस्तस्य समातृकः । स गतोऽनुपदं ज्ञातुमुदन्तमिति विह्वलः || ३८७|| चकार विप्रलापं च सुदीनमिममञ्जना । तिरश्चामपि कुर्वाणा करुणाकोमलं मनः || ३८८ || हा पुत्र किमिदं वृत्तं दैवेन किमनुष्ठितम् । प्रदर्श्य रत्नसंपूर्ण निधानं हरता पुनः || ३८९ || पत्य सङ्गमदुःखेन प्रस्ताया मे भवानभूत् । जीवितालम्बनं छिन्नं कथं तदपि कर्मणा ॥ ३९० ॥ ततः सहस्रशः खण्डैर्नीतायां सुमहास्वनम् । शिलायां पातवेगेन ददशैवं मुखस्थितम् ॥३९१ ॥ अन्तरास्यकृताङ्गुष्ठं क्रीडन्तं स्मितशोभितम् । उत्तानं प्रचलत्पाणिचरणं शुभविग्रहम् ॥३९२॥ मन्दमारुतसंपृक्तरक्तोत्पलवनप्रभम् । कुर्वाणं सकलं पिङ्गं तेजसा गिरिगह्वरम् ||३९३ || ततोऽनघशरीरं तं जननी पृथुविस्मया । गृहीत्वा शिरसि घ्रात्वा चक्रे वक्षःस्थलस्थितम् ॥ ३९४ ॥ गोद में लेकर जिनेन्द्र देवकी वन्दना कर और गुहाके स्वामी गन्धर्वदेवसे बार-बार क्षमा कराकर आत्मीयजनों के साथ गुहासे बाहर निकली । विमानके पास खड़ी अंजना वनलक्ष्मीके समान जान पड़ती थी । ३८० - ३८१ ॥
३९८
तदनन्तर जो वायुसे प्रेरित क्षुद्रघण्टिकाओं के समूहसे शब्दायमान था, जो लटकते हुए अतिशय निर्मल मोतियोंके उत्तम हारोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो झरनोंसे सहित ही हो, जिसमें गोले फानूस लटक रहे थे, जो काचनिर्मित केलोंके वनोंसे सुशोभित था, जिसमें लगे हुए सुवर्णके गोले सूर्यकी किरणोंका सम्पर्क पाकर चमक रहे थे, नाना रत्नोंकी किरणोंके संगमसे जिसमें इन्द्रधनुष उठ रहा था, रंग-बिरंगी सैकड़ों पताकाओंसे जो कल्पवृक्षके समान जान पड़ता था, चित्र-विचित्र रत्नोंसे जिसकी रचना हुई थी, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे खचित था, दिव्य था और ऐसा जान पड़ता था मानो सब ओरसे स्वर्गलोकसे घिरा हुआ ही हो ऐसे विमानको देखकर
कसे मुसकराता हुआ बालक उछलकर स्वयं प्रवेश करनेकी इच्छा करता मानो माताकी गोदसे छूटकर पर्वतकी गुफा में जा पड़ा ।। ३८२ - ३८६ तदनन्तर माता अंजना के साथ-साथ सब लोग हाहाकार कर उस बालकका समाचार जाननेके लिए शीघ्र ही विह्वल होते हुए वहाँ गये ||३८७|| अंजनाने दीनता से ऐसा विलाप किया कि जिसे सुनकर तिर्यंचों के भी मन करुणासे कोमल हो गये || ३८८ || वह कह रही थी कि हाय पुत्र ! यह क्या हुआ ? रत्नोंसे परिपूर्णं खजाना दिखाकर फिर उसे हरते हुए विधाताने यह क्या किया ? || ३८९ || पतिके वियोग दुःखसे ग्रसित जो मैं हूँ सो मेरे जीवनका अवलम्बन एक तू ही था पर दैवने उसे भी छोन लिया ॥ ३९०॥
तदनन्तर सब लोगोंने देखा कि पतन सम्बन्धी वेगसे हजार टुकड़े हो जानेके कारण जो महाशब्द कर रही थी ऐसी शिलापर बालक सुखसे पड़ा है || ३९९ ॥ | वह मुखके भीतर अँगूठा देकर खेल रहा है, मन्द मुसकानसे सुशोभित है, चित्त पड़ा है, हाथ पैर हिला रहा है, शुभ शरीरका धारक है, मन्द मन्द वायुसे हिलते हुए लाल तथा नीले कमलवनके समान उसकी कान्ति है, और अपने तेजसे पर्वतकी समस्त गुफाको पीत वर्ण कर रहा है ।। ३९२ - ३९३ ।। तदनन्तर निर्दोष
१. जाले म । २. मुहन्त-म. । ३. नीयते म ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org