Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 442
________________ पद्मपुराणे त्वत्संगर्म समासाद्य प्रमोदं परमागतः । नैर्सरैः शीकरैरेष हसतीव महीधरः ॥२९२॥ फलभारविनम्रामा लसकोमलपल्लवाः । पुष्पहासकृतो वृक्षा इमे तोषमुपागताः ॥२९३॥ मयूरसारिकाकीरकोकिलादिकलस्वनैः । कृतजल्पा इवैतस्य वनाभोमा महीभृतः ॥२९॥ नानाधातुकृतच्छायास्तरसंघातवाससः । अस्मिन् गुहा विराजन्ते कुसुमामोदवासिताः ॥२९५॥ जिनपूजनयोग्यानि पङ्कजानि सरस्सु हि । विद्यन्ते तव वक्त्रस्य धारयन्ति समानताम् ॥२९६॥ विधत्स्व तिमवेशे माम ('श्चिन्तावशामिका । कल्याणमत्र ते सर्व जनयिष्यन्ति देवताः ॥२९७॥ अधुना दिनवक्त्रे ते विज्ञायेवानघं वपुः । कोलाहलकृतो जाताः प्रमोदेन पतस्त्रिणः ॥२९८॥ पलाशाग्रस्थितानेते वृक्षा मन्दानिले रितान् । मुञ्चन्त्यानन्दवाप्पाभानवश्यायकणान् जडान् ॥२९९॥ संप्रेष्य प्रथमं संध्यां दतीमिव सरागिकाम् । उदन्तं ते परिज्ञातुमेष भानुः समुद्गतः ॥३०॥ एवमुक्काञ्जनावोचत्सखि मे सर्वबान्धवाः । त्वमेव त्वयि सत्यां च ममेदं विपिनं पुरम् ॥३०१॥ आपन्मध्योत्सवावस्थाः सेवते यस्य यो जनः । स तस्य बान्धवो बन्धुरपि शत्रुरसौख्यदः ॥३०२॥ इत्युक्त्वा देवदेवस्य विन्यस्य प्रतियातनाम् । पूजयन्त्यौ स्थिते तत्र ते विद्याकृतवर्तने ॥३०३॥ गन्धर्वोऽप्यनयोश्चक्रे सर्वतः परिरक्षणम् । आतोद्यं प्रत्यहं कुर्वन् कारुण्याजिनमक्तितः ॥३०॥ और विरह-सम्बन्धी सब दुःख भूल जावें ॥२८९-२९१।। तुम्हारा समागम पाकर परम हर्षको प्राप्त हुआ। यह पर्वत झरनोंके जल-कणोंके बहाने मानो हँस ही रहा है ।।२९२।। जिनके अग्रभाग फलोंके भारसे झुक रहे हैं, जिनके कोमल पल्लव लहलहा रहे हैं और जो पुष्पोंके बहाने हँसी प्रकट कर रहे हैं ऐसे ये वृक्ष तुम्हारे समागमसे ही मानो परम सन्तोषको प्राप्त हो रहे हैं ।।२९३।। इस पर्वतके जंगली मैदान मोर, मैना, तोता तथा कोयल आदिको मधुर ध्वनिसे ऐसे जान पड़ते हैं मानो वार्तालाप ही कर रहे हों ॥२९४।। जिनमें गेरू आदि नाना धातुओंकी कान्ति छायी हुई है, जिनपर वृक्षोंके समूह वस्त्रके समान आवरण किये हुए हैं और जो फूलोंकी सुगन्धिसे सुवासित हैं ऐसी इस पर्वतकी गुफाएँ स्त्रियोंके समान सुशोभित हो रही हैं ।।२९५॥ तालाबोंमें जिनेन्द्र देवकी पूजा करनेके योग्य जो कमल फूल रहे हैं वे तुम्हारे मुखकी समानता धारण करते हैं ॥२९६|| हे वामिनि ! यहाँ धैर्य धारण करो, चिन्ताकी वशीभूत मत होओ। यहाँ देवता तुम्हारा सब प्रकारका कल्याण करेंगे ॥२९७|| अब दिनके प्रारम्भमें पक्षी चहक रहे हैं सो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे शरीरकी स्वस्थता जानकर हर्षसे मानो कोलाहल ही कर रहे हैं ॥२९८।। ये वृक्ष पत्तोंके अग्रभागमें स्थित तथा मन्द-मन्द वायुसे प्रेरित शीतल ओसके कणोंको छोड़ रहे हैं सो ऐसे जान पड़ते हैं मानो हर्षके आँसू ही छोड़ रहे हों ॥२९९।। तुम्हारा वृत्तान्त जाननेके लिए सर्वप्रथम दूतीके समान रागवती ( लालिमासे युक्त ) सन्ध्याको भेजकर अब पीछेसे यह सूर्य स्वयं उदित हो रहा है ॥३०॥ वसन्तमालाके ऐसा कहनेपर अंजनाने उत्तर दिया कि हे सखि ! मेरे समस्त बान्धव तुम्ही हो। तेरे रहते हुए मुझे यह वन नगरके समान है ॥३०१॥ जो मनुष्य जिसके आपत्तिकाल, मध्यकाल और उत्सवकाल अर्थात् सभी अवस्थाओंमें सेवा करता है वही उसका बन्धु है तथा जो दुःख देता है वह बन्धु होकर भी शत्रु है ॥३०२।। इतना कहकर वे दोनों गुफामें देवाधिदेव मुनि सुव्रतनाथकी प्रतिमा विराजमान कर उसकी पूजा करती हुई रहने लगीं। विद्याके बलसे उनके भोजनकी व्यवस्था होती थी ॥३०३।। जिनेन्द्र भगवान्की भक्तिसे प्रतिदिन संगीत करता हुआ गन्धर्वदेव भी करुणा भावसे इन दोनों स्त्रियोंकी सबसे रक्षा करता था ॥३०४॥ १. माभूचिचन्ता म, । २. क्विबन्तप्रयोगः । ३. विद्याकृतभोजने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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