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षोडश पर्व
३५३ तस्यामेतदवस्थायां समोऽस्या दुःखितोऽथवा । अधिकः परिवारोऽभूस्किकर्तव्याकुलात्मकः ॥२५॥ अचिन्तयञ्च कित्वेतत्कारणेन विनामवत् । किं वा जन्मान्तरोपात्तं कर्म स्यात्पक्वमीदशम् ॥२६॥ किं वान्तरायकर्म स्याजनितं जन्मान्तरे । जातं वायुकुमारस्य फलदानपरायणम् ॥२७॥ येनायमनया साकं मुग्धया वीतदोषया । न भुक्ते परमान्मोगान्सर्वेन्द्रियसुखावहान् ॥२८॥ शृणु दुःखं यथा पूर्व न प्राप्तं भवने पितुः । सेयं कर्मानुभावेन दुःखभारमिमं श्रिता ॥२९॥ उपायमत्र के कुमो वयं भाग्यविवर्जिताः । अस्मत्प्रयतनासाध्यो गोचरो मुष कर्मणाम् ॥३०॥ राजपुत्री भवत्वेषा प्रेमसंभारभाजनम् । भर्तुरस्मत्कृतेनापि पुण्यजातेन सर्वथा ॥३१॥ अथवा विद्यते नैव पुण्यं नोऽत्यन्तमण्वपि । निमग्ना येन तिष्ठामो बालादुःखमहार्णवे ॥३२॥ मविष्यति कदा इलाध्यः स मुहूर्तोऽङ्कवर्तिनीम् । बालामिमां प्रियो नर्मगिरा यत्र लपिष्यति ॥३३॥ अत्रान्तरे विरोधोऽभूदक्षसां विभुना सह । वरुणस्य परं गर्व केवलं बिभ्रतो बलम् ॥३४॥ कैकसीसूनुना दूतः प्रेषितोऽथेत्यभाषत । वरुणं स्वामिनः शक्त्या दधानः परमां द्युतिम् ॥३५॥ श्रीमान् विद्याधराधीशो वरुण स्वाह रावणः । यथा कुरु प्रणामं मे सजीभव रणाय वा ॥३६॥ प्रकृतिस्थिरचित्तोऽथ विहस्य वरुणोऽवदत् । दूत को रावणो नाम क्रियते तेन का क्रिया ॥३७॥ नाहमिन्द्रो जगन्निन्धवीर्यो वैश्रवणोऽथवा । सहस्ररश्मिसंज्ञो वा मरुतो वाथवा यमः ॥३८॥ देवताधिष्ठितैः रत्नैर्दोऽस्यामवदुत्तमः । आयातु सममेमिस्तं नयाम्यद्य विसंज्ञताम् ॥३९।।
त्याग किया गया था ऐसी दीनहीन अंजना दिनोंको वर्षोंके समान बड़ी कठिनाईसे बिताती थी ॥२४॥ उसकी ऐसी अवस्था होनेपर उसका समस्त परिवार उसके समान अथवा उससे भी अधिक दुःखी था तथा 'क्या करना चाहिए' इस विषयमें निरन्तर व्याकुल रहता था ॥२५॥ परिवारके लोग सोचा करते थे कि क्या यह सब कारणके बिना ही हुआ है अथवा जन्मान्तरमें संचित कर्म ऐसा फल दे रहा है ॥२६॥ अथवा वायुकुमारने जन्मान्तरमें जिस अन्तराय कर्मका उपार्जन किया था अब वह फल देने में तत्पर हुआ है ।।२७। जिससे कि वह इस निर्दोष सुन्दरीके साथ समस्त इन्द्रियोंको सुख देनेवाले उत्कृष्ट भोग नहीं भोग रहा है ॥२८॥ सुनो, जिस अंजनाने पहले पिताके घर कभी रचमात्र भी दुःख नहीं पाया वही अब कर्मके प्रभावसे इस दुःखके भारको प्राप्त हुई है ।।२२।। इस विषयमें हम भाग्यहीन क्या उपाय करें सो जान नहीं पड़ता। वास्तवमें यह कर्मोंका विषय हमारे प्रयत्न द्वारा साध्य नहीं है ॥३०॥ हम लोगोंने जो पुण्य किया है उसीके प्रभावसे यह राजपुत्री अपने पतिकी प्रेमभाजन हो जाये तो अच्छा हो ॥३१॥ अथवा हम लोगोंके पास अणुमात्र भी तो पुण्य नहीं है क्योंकि हम स्वयं इस बालाके दुःखरूपी महासागरमें डूबे हुए हैं ॥३२॥ वह प्रशंसनीय मुहूर्त कब आवेगा जब इसका पति इसे गोदमें बैठाकर इसके साथ हास्यभरी वाणीमें वार्तालाप करेगा ॥३३।।
इसी बीचमें बहत भारी अहंकारको धारण करनेवाले वरुणका रावणके साथ विरोध हो गया ॥३४।। सो रावणने वरुणके पास दूत भेजा। स्वामीके सामयंसे परम तेजको धारण करनेवाला दूत वरुणसे कहता है कि ॥३५॥ हे वरुण! विद्याधरोंके अधिपति श्रीमान् रावणने तुमसे कहा है कि या तो तुम मेरे लिए प्रणाम करो या युद्धके लिए तैयार हो जाओ ॥३६॥ तब स्वभावसे ही स्थिर चित्तके धारक वरुणने हंसकर कहा कि हे दूत ! रावण कौन है ? और क्या काम करता है ? ॥३७|| लोकनिन्द्य वीर्यको धारण करनेवाला मैं इन्द्र नहीं हूँ, अथवा वैश्रवण नहीं हूँ, अथवा सहस्ररश्मि नहीं हूँ, अथवा राजा मरुत्व या यम नहीं हूँ ॥३८॥ देवताधिष्ठित रत्नोंसे इसका गवं १. श्रिताः म. । २. अस्मत्प्रयत्नतासाध्यो ब. । ३. सुमुहूर्तोऽङ्क म. । ४. त्वा+आह 'त्वामी द्वितीयायाः' इति त्वादेशः । ५. वीर्यवैश्रवण -म.।
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