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सप्तदशं पर्व
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इत्युक्त्वा क्रूरनामानं करमाहूय किंकरम् । कृतप्रणाममित्यूचे कोपारुणनिरीक्षणा ॥१२॥ अयि क्रराशु नीत्वेमा महेन्द्रपुरगोचरम् । यानेन सहितां सख्या निक्षिप्यैहि निरन्तरम् ॥१३॥ ततस्तद्वचनादेतां पृथुवेपथुविग्रहाम् । महापवननिर्धू ता लतामिव निराश्रयाम् ॥१४॥ ध्यायन्तीमाकुलं भूरिदुःखमागामि निष्प्रभाम् । विलीनमिव बिभ्राणां हृदयं दुःखवह्निना ॥१५॥ भीत्या निरुत्तरीभूतां सखीनिहितलोचनाम् । निन्दन्तीमशुभं कर्म मनसा पुनरुद्गतम् ॥१६॥ अश्रुधारां विमुञ्चन्तीं शलाकां स्फटिकीमिव । स्तनमध्ये क्षणं न्यस्तपर्यन्तामनवस्थिताम् ॥१७॥ सख्या समं समारोप्य यानं तत्कर्मदक्षिणः । करः प्रववृते गन्तं महेन्द्रनगरं प्रति ॥१८॥ दिनान्ते तत्पुरस्यान्तं संप्राप्योवाच सुन्दरीम् । एवं मधुरया वाचा क्रूरः कृतनमस्कृतिः ॥१९॥ स्वामिनीशासनादेवि कृतमेतन्मया तव । दुःखस्य कारणं कर्म ततो न क्रोडुमर्हसि ॥२०॥ एवमुक्त्वावतायैतां यानात्सख्या समन्विताम् । स्वामिन्यै द्रुतमागत्य कृतामाज्ञां न्यवेदयत् ॥२१॥ ततोऽजनां समालोक्य दुःखमारादिवोत्तमाम् । मन्दीभूतप्रभाचक्रो रविरस्तमुपागमत् ॥२२॥ लोचनच्छाययेवास्या रोदनात्यन्तशोणया। रविं त्राणाय पश्यन्त्याः पश्चिमाशारुणाऽभवत् ॥२३॥ ततस्तदुःखतो मुक्तैर्वाष्पैरिव घनैरलम् । दिग्भिनिरन्तरं चक्रे श्यामलं नमसस्तलम् ॥२४॥ कुपित हो उठी ॥११॥ उसने उस समय कर नामधारी दुष्ट सेवकको बुलाया। सेवकने आकर उसे प्रणाम किया। तदनन्तर क्रोधसे जिसके नेत्र लाल हो रहे थे ऐसी केतुमतीने सेवकसे कहा कि हे क्रूर ! तू सखोके साथ इस अंजनाको शीघ्र ही ले जाकर राजा महेन्द्रके नगरके समीप छोड़कर बिना किसी विलम्बके वापस आ जा ॥१२-१३॥
तदनन्तर आज्ञा पालनमें तत्पर रहनेवाला कर केतुमतीके वचन सुन अंजनाको वसन्तमालाके साथ गाड़ीपर सवार कर राजा महेन्द्रके नगरकी ओर चला। उस समय अंजनाका शरीर भयसे अत्यन्त कम्पित हो रहा था, वह प्रचण्ड वायुके द्वारा झकझोरकर नीचे गिरायी हुई निराश्रय लताके समान जान पड़ती थी, आगामी कालमें प्राप्त होनेवाले भारी दुःखका वह बड़ी व्याकुलतासे चिन्तन कर रही थी, उसका हृदय दुःखरूपी अग्निसे मानो पिघल गया था, भयके कारण वह निरुत्तर थी, सखी वसन्तमालापर उसके नेत्र लग रहे थे. वह पनः उदयमें आये अशभ कर्म
कर्मको मनही-मन निन्दा कर रही थी, और जिसका एक छोर स्तनोंके बीचमें रखा हुआ था ऐसी स्फटिककी चंचल शलाकाके समान आँसुओंको धारा छोड़ रही थी ॥१४-१८॥
तदनन्तर जब दिन समाप्त होनेको आया तब क्रूर राजा महेन्द्रके नगरके समीप पहुंचा। वहाँ पहुँचकर उसने अंजना सुन्दरीको नमस्कार कर निम्नांकित मधुर वचन कहे ।।१९।। उसने कहा कि हे देवि ! मैंने तुम्हारे लिए दुःख देनेवाला यह कार्य स्वामिनीकी आज्ञासे किया है अतः मुझपर क्रोध करना योग्य नहीं है ।।२०।। ऐसा कहकर उसने सखीसहित अंजनाको गाड़ीसे उतारकर तथा शीघ्र ही वापस आकर स्वामिनीके लिए सूचित कर किया कि मैं आपको आज्ञाका पालन कर चुका ।।२१।। तदनन्तर उत्तम नारी अंजनाको देखकर ही मानो दुःखके भारसे जिसका प्रभामण्डल फीका पड़ गया था ऐसा सूर्य अस्त हो गया ॥२२॥ पश्चिम दिशा लाल हो गयी सो ऐसा जान पड़ता था मानो अंजना सुन्दरी, निरन्तर रोती रहनेके कारण अत्यन्त लाल दिखनेवाले नेत्रोंसे रक्षा करनेके उद्देश्यसे सूर्यकी ओर देख रही थी सो उन्हींकी लालीसे लाल हो गयी थी ।।२३।। तदनन्तर दिशाओंने आकाशको श्यामल कर दिया सो ऐसा जान पड़ता था मानो अंजनाके दःखसे दःखी होकर उन्होंने अत्यधिक वाष्प ही छोडे थे, उन्हींसे आकाश श्यामल हो गया था ||२४||
१. शलाका म.। शिलानां ख.। २. ततोऽजना म.। ३. प्रभाचक्ररवि म.। ४. रवित्राणाय म.। ५. पश्यन्त्या म.। ६. दुःखितो म.।
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