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सप्तवश पर्व
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चिक्रोड' दमयन्तोऽपि तत्र मित्रैः समं सुखम् । पटवासवलक्षाङ्गः कुण्डलादिविभूषितः ॥१४४॥ अथ तेन स्थितेनारास्क्रीडता गगनाम्बराः । दृष्टास्तपोधना ध्यानस्वाध्यायादिक्रियोदिताः ॥१४५।। निस्सृत्य मण्डलान्मित्राद् रश्मिवत् सोऽतिभासुरः । जगाम मुनिसंघातं मेरुशृङ्गौघसंनिमम् ॥१४६॥ ततः साधुं स वन्दित्वा श्रुत्वा धर्म यथाविधि । सम्यग्दर्शनसंपन्नो बभूव नियमस्थितः ॥१७॥ दवा सप्तगुणोपेतामन्यदा पारणामसौ । साधुभ्यः पञ्चतां प्राप्य कल्पवासमशिश्रियत् ॥१४॥ नियमादानतश्चात्र मोगमन्वभवत् परम् । देवीशतेक्षणच्छायानीलाब्जस्रग्विभूषितः॥१४९॥ च्युतस्तस्मादिह द्वीपे मृगाङ्कनगरेऽभवत् । प्रियङ्गुलक्ष्मीसंभूतो हरिचन्द्रनृपात्मजः ॥१५०॥ सिंहचन्द्र इति ख्यातः कलागुणविशारदः । स्थितः प्रत्येकमेकोऽपि चेतःसु प्राणधारिणाम् ॥१५॥ तत्रापि मुक्तसद्भोगः साधुभ्योऽवाप्य सन्मतिम् । कालधर्मेण संयुक्तो जगाम त्रिदशालयम् ॥१५२॥ तत्रोदारं सुखं प्राप संकल्पकृतकल्पनम् । देवीवदनराजीवमहाखण्डदिवाकरः ॥१५३॥ च्युत्वात्रैव ततो वास्ये विजयार्धमहीधरे । नगरेऽरुणसंज्ञाके सुकण्ठस्य नरप्रभोः ॥१५॥ जायायां कनकोदयां सिंहवाहनशब्दितः । उदपादि गुणाकृष्टसमस्तजनमानसः ॥१५५॥ तत्र देव इवोदारसमोगमनुभतवान् । अप्सरोविभ्रमस्तेन कान्तालिङ्गनलालितः ॥१५६॥ तीर्थ विमलनाथस्य सोऽन्यदा जातसंमतिः । निक्षिप्य तनये लक्ष्मी धनवाहननामनि ॥१५७॥
क्रीड़ा कर रहा था। उस समय उसका शरीर सुगन्धित चूर्णसे सफेद था तथा कुण्डलादि आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥१४३-१४४॥
तदनन्तर वहाँ ठहरकर क्रीड़ा करते हुए दमयन्तने समीपमें ही विद्यमान ध्यान, स्वाध्याय आदि क्रियाओंमें तत्पर दिगम्बर मुनिराज देखे ॥१४५।। उन्हें देखते ही जिस प्रकार सूर्यसे देदीप्यमान किरण निकलती है उसी प्रकार अपनी गोष्ठीसे निकलकर अतिशय देदीप्यमान दमयन्त मुनिसमूहके पास पहुँचा । वह मुनियोंका समूह मेरुके शिखरोंके समूहके समान निश्चल था ॥१४६॥ तदनन्तर दमयन्तने मुनिराजकी वन्दना कर उनसे विधि-पूर्वक धर्मका उपदेश सुना और सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न होकर नियम आदि धारण किये ॥१४७॥ किसी एक समय उसने साधुओंके लिए सप्तगुणोंसे युक्त पारणा करायी और अन्तमें मरकर स्वर्गमें देवपर्याय पाया ॥१४८|| वहाँ वह पूर्वाचरित नियम और दानके प्रभावसे उत्तम भोग भोगने लगा। सैकड़ों देवियोंके नेत्रोंके समान कान्तिवाले नील कमलोंकी मालासे वह वहां सदा अलंकृत रहता था ॥१४९॥ वहाँसे च्युत होकर वह इसी जम्बूद्वीपके मृगांकनामा नगरमें राजा हरिचन्द्र और प्रियंगुलक्ष्मी नामक रानीसे सिंहचन्द्र नामका कला और गणोंमें निपूण पूत्र हआ। सिंहचन्द्र यद्यपि एक था तो भी समस्त प्राणियों के हृदयोंमें विद्यमान था ।।१५०-१५१|| उस पर्यायमें भी उसने साधुओंसे सद्बोध पाकर भोगोंका त्याग कर दिया था जिससे आयुके अन्तमें मरकर स्वर्ग गया ॥१५२॥ वहाँ वह देवियोंके मुखरूपी कमल-वनको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान था और संकल्प मात्रसे प्राप्त होनेवाले उत्तम सुखका उपभोग करता था ॥१५३॥ वहांसे च्युत होकर इसी भरतक्षेत्रके विजयाध पर्वतपर अरुण नामक नगरमें राजा सुकण्ठकी कनकोदरी नामा रानीसे सिंहवाहन नामका पुत्र हुआ। इस सिंहवाहनने गुणोंके द्वारा समस्त लोगोंका मन अपनी ओर आकर्षित कर लिया था ॥१५४-१५५।। अप्सराओंके विभ्रमको चुरानेवाली स्त्रियोंके आलिंगनसे परमाह्लादको प्राप्त हुआ सिंहवाहन वहाँ देवोंके समान उदार भोगोंका अनुभव करने लगा ॥१५६॥ किसी एक समय श्रीविमलनाथ भगवान्के तीर्थमें उसे सद्बोध प्राप्त हुआ सो मेघवाहन नामक पुत्रके लिए राज्य-लक्ष्मी सौंप संसारसे १. चिकोडे म. । २. क्रिपोदिता म. । ३. मृत्युम् । ४. वास्थो (?) म. । ५. विभ्रमस्तेनः कान्ता- म. ।
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