________________
सप्तदशं पर्व
अङ्कस्थवामपाण्यङ्कन्यस्तान्योत्तानपाणिकम् । निष्प्रकम्पं नदीनाथगाम्भीर्यस्थितमानसम् ॥११९॥ ध्यायन्तं वस्तुयाथात्म्यं यथाशासनभावनम् । निःशेषसंगनिर्मुक्तं वायुवद्गगनामलम् ॥१२०॥ शैलकूटगताशकं वीक्ष्य ताभ्यां चिरादसौ। निरचायि महासत्त्वः सौम्यमासुरविग्रहः ॥१२१॥ ततः पूर्वकृतानेकश्रवणासेवने मुदा । समोपं जग्मतुस्तस्या क्षणात्ते विस्मृतासुखे ॥१२२॥ त्रिःपरीत्य च भावेन नेमतुर्विहिताञ्जली । मुनिं परमिव प्राप्ते बान्धवं विकचेक्षणे ॥१२३॥ काले यदृच्छया तत्र तेन योगः समाप्यते । भवत्येव हि भव्यानां क्रिया प्रस्तावसंगता ॥१२४॥ ते ततोऽवदतामेवमविभक्तकरद्वये । अनगाराधिविन्यस्तनिरश्रुस्थिरलोचने ॥१२५॥ भगवन्नपि ते देहे कुशलं कुशलाशय । मूलमेष हि सर्वेषां साधनानां सुचेष्टित ॥१२६॥ उपर्युपरिसंवृद्धं तपः कच्चिद् गुणाम्बुधे । विहारोऽपि दमोद्वाहव्युपसर्गो महाक्षमः ॥१२७॥ आचार इति पृच्छावो भवन्तमिदमीदृशम् । अन्यथा कस्य नो योग्याः कुशलस्य भवद्विधाः ॥१२८॥ भवन्ति क्षेमतामाजो भवद्विधसमाश्रिताः । स्वस्मिस्तु कैव भावानां कथा साध्वितरात्मनाम् ॥१२९॥ इत्युक्त्वा ते व्यरंसिष्टां विनयानतविग्रहे । निःशेषभयनिर्मुक्ते तद् दृष्टे च बभूवतुः ॥१३॥
भी सीधी थी, और वे स्वयं स्थाणु अर्थात् ठूठके समान हलन-चलनसे रहित थे ॥११८॥ उन्होंने अपनी गोदमें स्थित वाम हाथकी हथेलीपर दाहिना हाथ उत्तान रूपसे रख छोड़ा था, वे स्वयं निश्चल थे और उनका मन समुद्रके समान गम्भीर था ॥११९|| वे जिनागमके अनुसार वस्तुके यथार्थ स्वरूपका ध्यान कर रहे थे, वायुके समान सर्व-परिग्रहसे रहित थे और आकाशके समान निर्मल थे ॥१२०।। उन्हें देखकर किसी पर्वतके शिखरकी आशंका उत्पन्न होती थी। वे महान् धैर्यके धारक थे तथा उनका शरीर सौम्य होनेपर भी देदीप्यमान था। बहुत देर तक देखनेके बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह उत्तम मुनिराज हैं ॥१२१।।
तदनन्तर जिन्होंने पहले अनेक बार मुनियोंकी सेवा की थी ऐसी वे दोनों स्त्रियाँ हर्षसे मुनिराजके समीप गयीं और क्षण-भरमें अपना सब दुःख भूल गयीं ॥१२२॥ उन्होंने भावपूर्वक तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, हाथ जोड़कर नमस्कार किया और परम बन्धुके समान मुनिराजको पाकर उनके नेत्र खिल उठे ॥१२३।। जिस समय ये पहुंचीं उसी समय मुनिराजने स्वेच्छासे ध्यान समाप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीवोंकी क्रिया अवसरके अनुसार ही होती है ॥१२४|| तत्पश्चात् जिनके दोनों हाथ जुड़े हुए थे और जिन्होंने अपने अश्रुरहित निश्चल नेत्र मुनिराजके चरणोंमें लगा रखे थे ऐसी दोनों सखियोंने कहा कि हे भगवन् ! हे कुशल अभिप्रायके धारक ! हे उत्तम चेष्टाओंसे सम्पन्न ! आपके शरीरमें कुशलता तो है ? क्योंकि समस्त साधनोंका मूल कारण यह शरीर ही है ॥१२५-१२६।। हे गुणोंके सागर! आपका तप उत्तरोत्तर बढ़ तो रहा है। इसी प्रकार हे इन्द्रियविजयके धारक! आपका विहार उपसर्गरहित तथा महाक्षमासे युक्त तो है ? ॥१२७॥ हे प्रभो! हम आपसे जो इस तरह कुशल पूछ रही हैं सो ऐसी पद्धति है यही ध्यान रखकर पूछ रही हैं अन्यथा आप-जैसे मनुष्य किस कुशलके योग्य नहीं हैं ? अर्थात् आप समस्त कुशलताके भण्डार हैं ॥१२८|| आप-जैसे पुरुषोंको शरणमें पहुंचे हुए लोग कुशलतासे युक्त हो जाते हैं; किन्तु स्वयं अपने-आपके विषयमें अच्छे और बुरे पदार्थोंको चर्चा ही क्या है ? ॥१२९।। इस प्रकार कहकर वे दोनों चुप हो रहों। उस समय उनके शरीर विनयसे नम्रीभूत थे। मुनिराजने जब उनकी ओर देखा तो वे सर्व प्रकारके भयसे रहित हो गयीं ॥१३०॥
१. नरवायि ब., ज. । २. समाप्यते म., ख., ज.। ३. निरसुस्थिर म.। ४. भगवन्न यि म., ख. । ५. अपिशब्दः प्रश्नार्थः । ६. संबद्धं म. । ७. 'कच्चित्कामप्रवेदने' इत्यमरः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org