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सप्तदशं पव
इमां च मोहिनीं' दृष्ट्वा परं कारुण्यमागता । साधुवर्गों हि सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः शुममिच्छति ॥१७१॥ अपृष्टोऽपि जनः साधुर्गुरुभक्तिप्रचोदितः । अज्ञप्राणिहितार्थं च धर्मवाक्ये प्रवर्तते ॥ १७२ ॥ अवोचत ततः सैवं शीलभूषणधारिणी । तदेमामितया वाचा माधुर्यमुपमोज्झितम् ॥१७३॥ भद्रे शृणु मनः कृत्वा परमं परमद्युते । नरेन्द्रकृतसंमाने भोगायतनविग्रहे ॥ १७४॥
वे चतुर्गतौ भ्राम्यन् जीवो दुःखैश्चितः सदा । सुमानुषत्वमायाति शमे कटुककर्मणः ॥ १७५ ॥ मनुष्यजातिमापन्ना सा त्वं पुण्येन शोभने । माभूज्जुगुप्सिताचारा कर्तुं योग्यासि सक्रियाम् ॥१७६॥ लब्ध्वा मनुष्यतां कर्म यो नादत्ते जनः शुभम् । रत्नं करगतं तस्य भ्रंशमायाति मोहिनः ॥ १७७॥ कायवाक्चेतसां वृत्तिः शुभा हितविधायिनी । सैवेतरेतराधानकारिणी प्राणधारिणाम् ॥१७८॥ स्वस्य ये हितमुद्दिश्य प्रवर्तन्ते सुकर्मणि । उत्तमास्ते जना लोके निन्दिताचारभूयसि ॥ १७९ ॥ कृतार्था अपि ये सन्तो भवदुःखमहार्णवात् । तारयन्ति जनान् भध्यानुपदेशविधानतः ॥ १८० ॥ उत्तमोत्तमतां तेषां बिभ्रतां धर्मचक्रिणाम् । "अर्हतां ये तिरस्कारं प्रतिबिम्बस्य कुर्वते ॥ १८१ ॥ जन्तूनां मोहिनां तेषां यदनेकभवानुगम् । दुःखं संजायते कस्तद्वक्तुं शक्नोति कार्त्स्यतः ॥१८२॥ येषां प्रपनेषु प्रासादो नोपजायते । न चापकारनिष्ठेषु द्वेषो माध्यस्थ्यमीयुषाम् ॥१८३॥ स्वस्मात्तथापि जन्तूनां परिणामाच्छुभाशुभात् । तदुद्देशेन संजातात् सुखदुःखसमुद्भवः ॥ १८४ ॥ यथाग्नेः सेवनाच्छीतदुःखं जन्तुरपोहते । क्षुतृष्णापरिपीडां च मक्तशीताम्बुसेवनात् ॥ १८५ ॥ अनादर देख उन्हें बहुत दुःख हुआ । पारणा करनेसे उनका मन हटा गया || १७० ॥ तथा इस अंजनका जीव जो कनकोदरी था उसे मिथ्यात्वग्रस्त देख उन्हें परम करुणा उत्पन्न हुई सो ठोक ही है क्योंकि साधुवर्ग सभी प्राणियोंका कल्याण चाहता है || १७१ || गुरु भक्ति से प्रेरित हुए साधुजन बिना पूछे भी अज्ञानी प्राणियों का हित करनेके लिए धर्मोपदेश देने लगते हैं ॥ १७२॥
तदनन्तर शीलरूप आभूषणको धारण करनेवाली संयमश्री आर्यिका अत्यन्त मधुर वाणी में कनकोदरीसे बोलीं कि हे भद्रे ! मनको उदार कर सुन। तू परम कान्तिको धारण करनेवाली है, राजा तेरा सम्मान करता है, तथा तेरा शरीर भोगोंका आयतन है || १७३ - १७४॥ चतुर्गंति रूप संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव सदा दुःखी रहता है । जब अशुभ कर्मका उदय शान्त होता है तभी यह उत्तम मनुष्यपर्यायको प्राप्त होता है || १७५ || हे शोभने ! तू पुण्योदयसे मनुष्य योनिको प्राप्त हुई है अतः घृणित आचार करनेवाली न हो । तू उत्तम क्रिया करने योग्य है अर्थात् अच्छे कार्य करना ही तुझे उचित है ॥ १७६ ॥ जो प्राणी मनुष्यपर्याय पाकर भी शुभ कार्य नहीं करता है. उस मोही के हाथमें आया हुआ रत्न यों ही नष्ट हो जाता है || १७७ ॥ मन, बचन, कायकी शुभ प्रवृत्ति ही प्राणियोंका हित करती है और अशुभ प्रवृत्ति अहित करती है || १७८ || इस संसार में निन्दित आचारके धारक मनुष्योंकी ही बहुलता है पर जो आत्महितका लक्ष्य कर शुभ कार्यं प्रवृत्त होते हैं वे उत्तम कहलाते हैं ॥ १७९ ॥ जो स्वयं कृतकृत्य होकर भी उपदेश देकर भव्य प्राणियोंको संसाररूपी महासागरसे तारते हैं, जो सर्वोत्कृष्ट हैं तथा धर्मचक्रके प्रवर्तक हैं ऐसे अरहन्त भगवान्की प्रतिमाका जो तिरस्कार करते हैं उन मोही जीवोंको अनेक भवों तक साथ जाने वाला जो दुःख प्राप्त होता है उसे पूर्ण रूपसे कहने के लिए कौन समर्थं हो सकता ? ।।१८० - १८२ ।। अरहन्त भगवान् तो माध्यस्थ्य भावको प्राप्त हैं इसलिए यद्यपि इन्हें शरणागत जीवोंमें न प्रसन्नता होती है और न अपकार करनेवालोंपर द्वेष ही होता है ॥ १८३ ॥ तो भी जीवोंको उपकार और अपकारके निमित्तसे होनेवाले अपने शुभ-अशुभ परिणाम से सुखदुःखकी उत्पत्ति होती है || १८४|| जिस प्रकार यह जीव अग्निकी सेवासे अपना शीत-जन्य दुःख १. मोहिनीं ज., ख. । मेहिनीं क. । २ सुख म । ३ तदिमां मितया म । तदा + इमाम् + इतया इतिच्छेदः । ४. विकृतां म. । ५. अर्हतो म. । ६. प्रयत्नेषु क, ख । ७. क्षुत्तृष्णां परिपीडां च म. ।
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