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सप्तवशं पर्व
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अनुयान्ती महारण्यधरणीं समयागिरिम् । व्यालजालसमाकीणां तन्नादात्यन्तभीषणाम् ।।९३॥ महानोकहरुद्धदिवाकरकरोत्कराम् । महीभृत्पादसंकीणां दर्मसूचीसुदुश्चराम् ॥९॥ युक्तां मातङ्गमालाभिय॑स्यन्ती कृच्छ्रतः पदम् । मातङ्गमालिनी नाम प्राप मानसदुर्गमाम् ।।९५।। शक्तापि गगने गन्तुं पद्भ्यां तस्याः सखी ययौ । प्रेमबन्धनसंबद्धा छायावृत्तिमुपाश्रिता ॥१६॥ भयानकां ततः प्राप्य तामसौ संकटाटवीम् । वेपमानसमस्ताना कांदिशीकत्वमागमत् ॥९७॥ ततस्तामाकुलां ज्ञात्वा गृहीत्वा करपल्लवे । आली जगाद मा भैषीः स्वामिन्येहीति सादरात् ॥९८॥ ततः सख्यंसविन्यस्तविस्रंसिकरपल्लवा । दर्भसूचीमुखस्पर्शकूणितेक्षणकोणिका ॥१९॥ तत्र तत्रैव भूदेशे न्यस्यन्ती चरणौ पुनः । स्तनन्ती दुःखसंभाराद्देहं कृच्छ्रण बिभ्रती ॥१०॥ उत्तरन्ती प्रयासेन निर्झरान् वेगवाहिनः । स्मरन्ती स्वजनं सर्व निष्ठुराचारकारिणम् ॥१०॥ निन्दन्ती स्वमुपालम्भं प्रयच्छन्ती मुहुर्विधेः । कारुण्यादिव वल्लीभिः श्लिष्यमाणाखिलाङ्गिका ॥१०२॥ त्रस्तसारङ्गजायाक्षी श्रमजस्वेदवाहिनी। सतं कण्टकिगुच्छेषु मोचयन्त्यंशुकं चिरात् ॥१०॥ क्षतजेनाचितौ पादौ लाक्षिताविव बिभ्रती। शोकाग्निदाहसंभतां श्यामतां दधती पराम् ॥१०४॥ तलेऽपि चलिते त्रासं व्रजन्ती चलविग्रहा । संत्रासस्तम्भितावूरू वहन्ती खेददुर्वहौ ।।१०५।।
वह आकाशमें चलनेके लिए समर्थ नहीं थी ॥९२॥ वह पर्वतकी समीपवर्तिनी महावनकी भूमिमें चलती-चलती मातंगमालिनी नामकी उस भूमिमें पहुंची जो हिंसक जन्तुओंसे व्याप्त थी और उनके शब्दोंसे भय उत्पन्न कर रही थी। बड़े-बड़े वृक्षोंने जहाँ सूर्यको किरणोंका समूह रोक लिया था, जो छोटी-छोटी पहाड़ियोंसे व्याप्त थी, डाभको अनियोंके कारण जहाँ चलना कठिन था, जो हाथियोंकी श्रेणियोंसे युक्त थी तथा शरीरकी बात तो दूर रही मनसे भी जहाँ पहुँचना कठिन था। अंजना बड़े कष्टसे एक-एक डग रखकर चल रही थी ॥९३-९५।। यद्यपि उसकी सखी आकाशमें चलने में समर्थ थी तो भी वह प्रेमरूपी बन्धनमें बंधी होनेसे छायाके समान पैदल ही उसके साथसाथ चल रही थी ।।१६।। उस भयानक सघन अटवीको देखकर अंजनाका समस्त शरीर काँप उठा। वह अत्यन्त भयभीत हो गयी ॥९७||
__ तदनन्तर उसे व्यग्र देख सखीने हाथ पकड़कर बड़े आदरसे कहा कि स्वामिनि ! डरो मत, इधर आओ ॥९८।। अंजना सहारा पानेकी इच्छासे सखीके कन्धेपर हाथ रखकर चल रही थी पर उसका हाथ सखीके कन्धेसे बार-बार खिसककर नीचे आ जाता था। चलते-चलते जब कभी डाभकी अनी पैरमें चुभ जाती थी तब बेचारी आंख मींचकर खड़ी रह जाती थी ॥९९|| वह जहाँसे पैर उठाती थी दुःखके भारसे चीखती हुई वहीं फिर पैर रख देती थी। वह अपना शरीर बड़ी कठिनतासे धारण कर रही थी॥१००। वेगसे बहते हुए झरनोंको वह बड़ी कठिनाईसे पार कर पाती थी। उसे निष्ठर व्यवहार करनेवाले अपने समस्त आत्मीयजनोंका बार-बार स्मरण हो आता था ॥१०१।। वह कभी अपनी निन्दा करती थी तो कभी भाग्यको बार-बार दोष देती थी। लताएँ उसके शरीरमें लिपट जाती थीं सो ऐसा जान पड़ता था कि दयासे वशीभूत होकर मानो उसका आलिंगन ही करने लगती थीं ॥१०२॥ उसके नेत्र भयभीत हरिणीके समान चंचल थे, थकावटके कारण उसके शरीरमें पसीना निकल आया था, काँटेदार वृक्षोंमें वस्त्र उलझ जाता था तो देर तक उसे ही सुलझाती खड़ी रहती थी ॥१०३|| उसके पैर रुधिरसे लाल-लाल हो गये थे, सो ऐसे जान पड़ते थे मानो लाखका महावर ही उनमें लगाया गया हो। शोकरूपी अग्निको दाहसे उसका शरीर अत्यन्त सांवला हो गया था ॥१०४|| पत्ता भी हिलता था तो वह भयभीत हो जाती थी, उसका शरीर काँपने लगता था, भयके कारण उसकी दोनों जाँघे अकड़ जाती थीं और १. कांदिशीत्वमुपागमत् म. । २. क्वणितेक्षण- म । ३. कण्टकगुच्छेषु म.। ४. दधतीम् म. ।
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