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सप्तवर्श पर्व
३७५
इत्युक्त्वासौ समं सख्या तदेव प्राविशद्वनम् । मृगीव मोहसंप्राप्ता मृगराजविमीषिता ॥६५॥ वातातपपरिश्रान्ता दुःखसंमारपीडिता । उपविश्य वनस्यान्तं सा चक्रे परिदेवनम् ॥६६॥ हा हता मन्दभाग्यास्मि विधिना दुःखदायिना । अहेतुवैरिणा कष्ट कं परित्राणमाश्रये ॥६॥ दौर्भाग्यसागरस्यान्ते प्रसादं कथमप्यगात् । नाथो मे स गतस्त्यक्त्वा दुष्कर्मपरिचोदितः ॥६॥ श्वश्रवादिकृतदुःखानां नारीणां पितुरालये । अवस्थानं ममापुण्यैरिदमप्यवसारितम् ॥६९॥ मात्रापि न कृतं किंचित्परित्राणं कथं मम । मर्तृच्छन्दानुवर्तिन्यो जायन्ते च कुलाङ्गनाः ॥७॥ त्वय्यविज्ञातगर्मायामेष्यामीति स्वयोदितम् । हा नाथ वचनं कस्मात्स्मर्यते न कृपावता ॥७१॥ अपरीक्ष्य कथं श्वश्रु त्यक्तुं मामुचितं तव । ननु संदिग्धशीलानां सैन्त्युपायाः परीक्षणे ॥७२॥ उत्सङ्गलालितां बाल्ये सदा दुर्लडितात्मिकाम् । निष्परीक्ष्य पितस्त्यक्तुं मां कथं तेऽभवन्मतिः ॥७३॥ हा मातः साधु वाक्यं ते न कथं निर्गतं मुखात् । सकृदप्युत्तमा प्रीतिरधुना सा किमुज्झिता ॥७॥ एकोदरोषितां भ्रातस्त्रातुं ते मां सुदुःखिताम् । कथं न काचिदुद्भूता चेष्टा निष्ठुरचेतसः ॥७५॥ यत्र यूयमिदंचेष्टाः प्रधाना बन्धुसंह तेः । तत्र कुर्वन्तु किं शेषा वराका दुरबान्धवाः ॥७६॥ अथवा कोऽत्र वो दोषः पुण्यतौं मम निष्ठिते । फलितोऽपुण्यवृक्षोऽयं निषेव्योऽवशया मया ॥७७॥ प्रतिशब्दसमं तस्या विलापमकरोत् सखी । तदाक्रन्दविनिर्धूतधैर्यदूरितमानसा ॥७॥
जाना ही परम सुख है ॥६४॥ इतना कहकर अंजना सखीके साथ उसी वन में प्रविष्ट हो गयी जिसमें केतुमतीका सेवक उसे छोड़ गया था। जिस प्रकार कोई मृगी सिंहसे भयभीत हो वनसे भागे और कुछ समय बाद भ्रान्तिवश उसी वनमें फिर जा पहुँचे उसी प्रकार फिरसे अंजनाका वनमें जाना हुआ ॥६५।। दुःखके भारसे पीड़ित अंजना जब वायु और घामसे थक गयी तब वनके समीप बैठकर विलाप करने लगी ॥६६॥ हाय-हाय ! मैं बड़ी अभागिनी हूँ, अकारण वैर रखनेवाले दुःखदायी विधाताने मुझे यों ही नष्ट कर डाला । बड़े दुःखकी बात है, मैं किसकी शरण गहूँ।।६७॥ दौर्भाग्यरूपी सागरको पार करनेके बाद मेरा नाथ किसी तरह प्रसन्नताको प्राप्त हुआ सो दुष्कर्मसे प्रेरित हो अन्यत्र चला गया ॥६८॥ जिन्हें सास आदि दुःख पहुँचाती हैं ऐसी स्त्रियाँ जाकर पिताके घर रहने लगती हैं पर मेरे दुर्भाग्यने पिताके घर रहना भी छुड़ा दिया ॥६९॥ माताने भी मेरी कुछ भी रक्षा नहीं की सो ठीक ही है क्योंकि कुलवती स्त्रियां अपने भर्तारके अभिप्रायानुसार ही चलती हैं ।।७०॥ हे नाथ ! तुमने कहा था कि तुम्हारा गर्भ प्रकट नहीं हो पायेगा और मैं आ जाऊंगा सो वह वचन याद क्यों नहीं रखा ? तुम तो बड़े दयालु थे ॥७१॥ हे सास ! बिना परीक्षा किये हो क्या मेरा त्याग करना तुम्हें उचित था ? जिनके शीलमें संशय होता है उनकी परीक्षा करनेके भी तो बहुत उपाय हैं ॥७२॥ हे पिता! आपने मुझे बाल्यकालमें गोदमें खिलाया है और सदा बड़े लाड़-प्यारसे रखा है फिर परीक्षा किये बिना ही मेरा परित्याग करनेकी बुद्धि आपको कैसे हो गयी ?।।७३।। हाय माता ! इस समय तेरे मुखसे एक बार भी उत्तम वचन क्यों नहीं निकला? तूने वह अनुपम प्रीति इस समय क्यों छोड़ दी ? ॥७४॥ हे भाई! मैं तेरी एक ही माताके उदरमें वास करनेवाली अत्यन्त दुःखिनी बहन हूँ सो मेरी रक्षा करनेके लिए तेरी कुछ भी चेष्टा क्यों नहीं हुई ? तू बड़ा निष्ठुर हृदय है ॥७५।। जब बन्धुजनोंमें प्रधानता रखनेवाले तुम लोगोंकी यह दशा है तब जो बेचारे दूरके बन्धु हैं वे तो कर ही क्या सकते हैं ? ॥७६।। अथवा इसमें तुम सबका क्या दोष है ? पुण्यरूपी ऋतुके समाप्त होनेपर अब मेरा यह पापरूपी वृक्ष फलीभूत हुआ है सो विवश होकर मुझे इसकी सेवा करनी ही है ॥७७॥ अंजनाका विलाप सुनकर जिसके हृदयका धैर्य दूर हो १. त्वया विज्ञात- म.। २. सन्त्यपायाः म.। ३. उत्सङ्गलालिता म.। ४. बन्धुसंहतिः म.। ५. वा दोषः ब., ज..
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