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पद्मपुराणे
तस्मात् संदिग्धशीलेयमाशु निर्वास्यतामतः । नगराद्यावदमले कुले नो जायते मलम् ॥५२॥ विशुद्धविनया चार्वी चारुचेष्टाविधायिनी । मवेदभ्यर्हितात्यन्तं कस्य नो कुलबालिका ।।५३।। पुण्यवन्तो महासत्त्वा पुरुषास्तेऽतिनिर्मलाः । यैः कृतो दोषमूलानां दाराणां न परिग्रहः ॥५४॥ परिग्रहे तु दाराणां भवत्येवंविधं फलम् । यस्मिन् गते सति ख्याति 'भूप्रवेशोऽभिवान्छयते ॥५५॥ दुःखप्रत्यायनस्वान्तस्तावल्लोकोऽवतिष्ठताम् । जातमेव ममाप्यत्र मनोऽद्य कृतशङ्कनम् ॥५६॥ एपा भर्तुरचक्षुष्या श्रुता पूर्व मयाऽसकृत् । ततस्तेन
। पूर्व मयाऽसकृत् । ततस्तेन न संभूतिरस्या गर्भस्य निश्चिता ॥५७॥ तस्मादन्योऽपि यस्तस्मै प्रयच्छति समाश्रयम् । वियोज्यः स मया प्राणैरित्येष मम संगरः ॥५॥ कुपितेनेति सा तेन द्वारादविदिता परैः । निर्घाटिता समं सख्या दुःखपूरितविग्रहा ॥५९॥ यद्यत्स्वजनगेहं सा जगामाश्रयकाङ्कया। तत्र तत्राप्यधीयन्त द्वाराणि नृपशासनात् ॥६०|| यत्रैव जनकः क्रुद्धो विदधाति निराकृतिम् । तत्र शेषजने काऽऽस्था तच्छन्दकृतचेष्टिते ॥६१।। एवं निर्धाट्यमाना सा सर्वत्रात्यन्त विक्लवा । सखी जगाद वाष्पौघसमार्दीकृतदेहिका ।।६२॥ अम्बे इहात्र किं भ्रान्ति कुर्वन्त्यावास्वहे सखि । पाषाणहृदयो लोको जातोऽयं नः कुकर्ममिः ॥६३॥ वनं तदेव गच्छावस्तत्रैवास्तु यथोचितम् । अपमानात्ततो दुःखान्मरणं परमं सुखम् ॥६४॥
बातको भी अन्यथा कह दिया हो तो इसका निश्चय कैसे किया जाये ? ॥५१॥ इसलिए यह सन्दिग्धशीला है अर्थात् इसके शोलमें सन्देश है अतः जबतक हमारे निर्मल कुलमें कलंक नहीं लगता है उसके पहले ही इसे नगरसे शीघ्र निकाल दिया जाये ॥५२॥ निर्दोष, विनयको धारण करनेवाली, सुन्दर और उत्तम चेष्टाओंसे युक्त घरकी लड़की किसे अत्यन्त प्रिय नहीं होती ? पर ये सब गुण इसमें कहाँ रहे ? ॥५३॥ वे महान् धैर्यको धारण करनेवाले अत्यन्त निर्मल पुरुष बड़े पुण्यात्मा हैं जिन्होंने दोषोंके मूल कारणभूत स्त्रियोंका परिग्रह ही नहीं किया अर्थात् उन्हें स्वीकृत ही नहीं किया ॥५४॥ स्त्रियों के स्वीकार करने में ऐसा हो फल होता है । यदि कदाचित् स्त्रो अपवादको प्राप्त होती है तो पृथिवीमें प्रवेश करनेकी इच्छा होने लगती है ।।५५॥ जिनके हृदयमें बड़े दुःखसे विश्वास उत्पन्न कराया जाता है ऐसे अन्य मनुष्य तो दूर रहे आज मेरा हृदय ही इस विषयमें शंकाशील हो गया है ॥५६॥ यह अपने पतिकी द्वेषपात्र है अर्थात् इसका पति इसे आँखसे भी नहीं देखना चाहता यह मैंने कई बार सुना है। इसलिए यह तो निश्चित है कि इसके गर्भकी उत्पत्ति पतिसे नहीं है ॥५७॥ इस दशामें यदि और कोई भी इसके लिए आश्रय देगा तो मैं उसे प्राणरहित कर दूंगा ऐसी मेरी प्रतिज्ञा है ॥५८।। इस प्रकार कुपित हुए राजाने जब तक
सरोंको पता नहीं चल पाया उसके पहले ही अंजनाको सखीके साथ द्वारसे बाहर निकलवा दिया। उस समय अजनाका शरीर दुःखसे भरा हुआ था ॥५९॥ आश्रय पानेको इच्छासे वह जिस-जिस आत्मीयजनके घर जाती थी राजाको आज्ञासे वह वहीं-वहींके द्वार बन्द पाती थी॥६॥ जो ठीक हो है क्योंकि जहाँ पिता हो क्रुद्ध होकर तिरस्कार करता है वहाँ उसीके अभिप्रायके अनुसार कार्य करनेवाले दूसरे लोगोंका क्या विश्वास किया जा सकता है ?-उनमें क्या आशा रखी जा सकती है ? ॥६१। इस तरह सब जगहसे निकाली गयी अंजना अत्यन्त अधीर हो गयी। अश्रुओंके समूहसे उसका शरीर गीला हो गया। उसने सखीसे कहा कि हे माता! हम दोनों यहाँ भटकती हुई क्यों पड़ी हैं ? हे सखि! हमारे पापोदयके कारण यह समस्त संसार पाषाणहृदय हो गया है अर्थात् सबका हृदय पत्थरके समान कड़ा हो गया है ।।६२-६३॥ इसलिए हम लोग उसी वनमें चलें । जो कुछ होना होगा सो वहीं हो लेगा। इस अपमानसे तथा तज्जन्य दुःखसे तो मर १. भूप्रदेशोऽभि -म.। २. तत्राप्यधीयन्त म.। ३. नृपशासनान म.। ४. निर्धार्यमाणा क., ख., ब., ज.। ५. अम्बाशब्दस्य संबुद्धौ ‘अम्ब' इति रूपं भवति । अत्र 'अम्बे' इति प्रयोगश्चिन्त्यः ।
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