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पद्मपुराणे तदुःखादिव संप्राप्ता 'दुःखं संघातकारिणः । कुलायेष्वाकुलाश्चकुर्वयः कोलाहलं परम् ॥२५॥ ततो दुःखमविज्ञाय सा क्षुदादिसमुद्भवम् । अभ्याख्यानमहादुःखसागरप्लवकारिणी ॥२६॥ भीतान्तर्वदनं साथ कुर्वती परिदेवनम् । सख्या विरचिते तस्थौ पल्लवैः संस्तरेऽञ्जना ॥२७॥ न तस्या नयने निद्रा तस्यां रात्रावढौकत । दाहादिव भयं प्राप्ता संततोष्णाश्रसंभवात् ॥२८॥ पाणिसंवाहनात् सख्या विनिर्धूतपरिश्रमा । सान्त्व्यमाना निशां निन्ये कृच्छ्रणासौ समंसमम् ॥२९॥ ततो दीर्घोषणनिश्वासनितान्तम्लानपल्लवम् । प्रभाते शयनं त्यक्त्वा नानाशङ्कातिविक्लवा ॥३०॥ कृतानुगमना सख्या छाययेवानुकूलया। ऐत्पितुर्मन्दिरद्वारं सकृपं वीक्षिता जनैः ॥३१॥ ततस्तत्प्रविशन्ती सा निरुद्धा द्वाररक्षिणा । प्राप्ता रूपान्तरं दुःखादविज्ञाता व्यवस्थिता ॥३२॥ ततो निखिलमेतस्याः सख्या कृतनिवेदितम् । विज्ञाय स्थापयिस्वान्यं नरं द्वारे ससंभ्रमः ॥३३॥ गत्वा शिलाकवाटाख्यो द्वारपालः कृतानतिः । सुतागमं महीपाणिरुपांश्वीशं व्यजिज्ञपत् ॥३४॥ ततः प्रसन्नकीाख्यं महेन्द्रः पार्श्वगं सुतम् । आज्ञापयन् महाभूत्या तस्याः शीघ्रं प्रवेशनम् ॥३५॥ पुरस्य क्रियतां शोमा साधनं परिसंज्ज्यताम् । स्वयं प्रवेशयामीति पुनरूचे नराधिपः ॥३६॥ जगादासौ ततस्तस्मै द्वारपालो यथास्थितम् । सुतायाश्चरितं कृत्वा वदने पाणिपल्लवम् ॥३७॥
घोंसलोंमें इकट्ठे होनेवाले पक्षी बड़ी आकुलतासे अत्यधिक कोलाहल करने लगे सो ऐसा मालूम होता था मानो अंजनाके दुःखसे दुःखी होकर ही वे चिल्ला रहे हों ।।२५।। तदनन्तर वह अंजना भूख-प्यास आदिसे उत्पन्न होनेवाला दुःख तो भूल गयी और अपवादजन्य महादुःखरूपी सागरमें उतराने लगी ॥२६॥ वह भयभीत होनेके कारण जोरसे तो नहीं चिल्लाती थी पर मुखके भीतर-ही-भीतर अश्रु ढालती हुई विलाप कर रही थी। तत्पश्चात् सखीने वृक्षोंके पल्लवोंसे एक आसन बनाया सो वह उसीपर बैठ गयी ॥२७|| उस रात्रिमें अजनाके नेत्रोंमें निद्रा नहीं आयी सो ऐसा जान पडता था मानो निरन्तर निकलनेवाले उष्ण आँसूओंसे समत्पन्न दाहसे डरकर ही नहीं आयी थी ।।२८॥ सखीने हाथसे दाबकर जिसकी थकावट दूर कर दी थी तथा जिसे निरन्तर सान्त्वना दी थी ऐसी अंजनाने बड़े कष्टके साथ पूर्ण रात्रि बितायी अथवा 'समा समां निशां कृच्छ्रेण नित्ये' एक वर्षके समान रात्रि बड़े कष्टसे व्यतीत की ॥२९॥
तदनन्तर प्रभात हुआ सो लम्बी और गरम-गरम साँसोंसे जिसके पल्लव अत्यन्त मुरझा गये थे ऐसी शय्या छोड़कर अंजना पिताके महलके द्वारपर पहुंची। छायाकी तरह अनुकूल चलनेवाली सखी उसके पीछे-पीछे चल रही थी और लोग उसे दयाभरी दृष्टिसे देख रहे थे ॥३०-३१।। दुःखके कारण अजनाका रूप बदल गया था सो द्वारपालकी पहचानमें नहीं आयी। अतः द्वारमें प्रवेश करते समय उसने उसे रोक दिया। जिससे वह वहीं खड़ी हो गयी ॥३२॥ तदनन्तर सखीने सब समाचार सुनाया सो उसे जानकर शिलाकपाट नामका द्वारपाल द्वारपर किसी दूसरे मनुष्यको खडा कर भीतर गया और राजाको नमस्कार कर हाथसे पृथिवीको छूता हुआ एकान्तमें पुत्रीके आनेका समाचार कहने लगा॥३३-३४।। तत्पश्चात राजा महेन्द्रने समीपमें बैठे हए प्रसन्न कीर्ति नामक पुत्रको आज्ञा दी कि पुत्रीका बड़े वैभवके साथ शीघ्र ही प्रवेश कराओ ॥३५॥ तदनन्तर राजाने फिर कहा कि नगरकी शोभा करायी जाये तथा सेना सजायी जाये मैं स्वयं ही पुत्रीका प्रवेश कराऊँगा ।।३६।। तत्पश्चात् द्वारपालने पुत्रका जैसा चरित्र सुन रखा था वैसा मुँहपर हाथ लगाकर राजाके लिए कह सुनाया ॥३७।। १. दुःखसंघात म., ब.। २. पल्लवे म. । ३. सान्त्वमाना म. । ४. समा समम् म., ब., ज.। कृच्छंग समं साकं समां पूर्णा निशां निन्ये । ५. अगच्छत् । ६. अविज्ञाता व्यवस्थितो ब.। ७. न्यन्नरं म.। ८. प्रसन्नकोर्ताख्यं म. । ९. परिसज्जातम् म. ।
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