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सप्तदशं पर्व
कियत्यपि प्रयातेऽथ काले गर्भस्य सूचकाः । विशेषाः प्रादुरभवन्महेन्द्र तनयातनौ ॥१॥ इयाय पाण्डुतां छाया यशसेव हनूमतः । गतिर्मन्दतरत्वं च मेत्तदिग्नागविभ्रमा ॥२॥ स्तनावत्युन्न तिं प्राप्तौ श्यामलीभूतचूचुकौ । आलस्याद् भ्रसमुत्क्षेपं चकार विषये गिरः ॥३॥ ततस्ता लक्षणैरेभिः श्वश्रुर्विज्ञाय गर्भिणीम् । पप्रच्छ तव केनेदं कृतं कर्मेत्यसूयिका ॥४॥ साञ्जलिः सा प्रणम्योचे निखिलं पूर्वचेष्टितम् । प्रतिषिद्धापि कान्तेन गतिमन्यामविन्दती ॥५॥ ततः केतुमती ऋद्धा जगादेति सुनिष्ठुरम् । वाणीभिावदेहाभिस्ताडयन्तीव यष्टिमिः ॥६॥ यो न त्वत्सदशं पापे द्रष्टमाकारमिच्छति । शब्दं वा श्रवणे कर्तमतिद्वेषपरायणः ॥७॥ स कथं स्वजनापृच्छां कृत्वा गेहाद्विनिर्गतः । भवत्या संगम धीरः कुर्वीत विगतत्रपे ॥८॥ धिक् त्वां पापां शशाङ्कांशुशुभ्रसंतानदूषिणीम् । आचरन्ती क्रियामेतां लोकद्वितयनिन्दिताम् ॥९॥ सखी वसन्तमाला ते साध्वीमेतां मतिं ददौ । वेश्यायाः कुलटानां किं कुर्वन्ति परिचारिकाः ॥१०॥ दर्शितेऽपि तदा तस्मिन्कटके ऋरमानसा । प्रतीयाय न सा श्वश्रुश्चुकोपात्यन्तमुग्रवाक् ॥११॥
अथानन्तर कितना ही समय बीतनेपर राजा महेन्द्रकी पुत्री अंजनाके शरीरमें गर्भको सूचित करनेवाले विशेष चिह्न प्रकट हुए ॥१॥ उसकी कान्ति सफ़ेदोको प्राप्त हो गयी सो मानो गर्भमें स्थित हनुमान्के यशसे ही प्राप्त हुई थी। मदोन्मत्त दिग्गजके समान विभ्रमसे भरी उसकी मन्द चाल और भी अधिक मन्द हो गयी ।।२।। जिनका अग्रभाग श्यामल पड़ गया था ऐसे स्तन अत्यन्त उन्नत हो गये और आलस्यके कारण वह जहाँ बात करना आवश्यक था वहाँ केवल भौंह ऊपर उठा कर संकेत करने लगी ॥३॥ तदनन्तर इन लक्षणोंसे उसे गर्भवती जान ईर्ष्यासे भरी सासने उससे पूछा कि तेरे साथ यह कार्य किसने किया है ? ।।४। इसके उत्तरमें अजनाने हाथ जोड़ प्रणाम कर पहलेका समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। यद्यपि पवनंजयने यह वृत्तान्त प्रकट करनेके लिए उसे मना कर दिया था तथापि जब उसने कोई दूसरा उपाय नहीं देखा तब विवश हो संकोच छोड़ सब समाचार प्रकट कर दिया ॥५॥
तदनन्तर केतुमतीने कुपित होकर बड़ी निष्ठुरताके साथ पत्थर-जैसी कठोर वाणीमें उससे कहा । जब केतुमती अंजनासे कठोर शब्द बोल रही थी तब ऐसा जान पड़ता था मानो वह लाठियोंसे उसे ताड़ित कर रही थी ॥६॥ उसने कहा कि अरी पापिन ! अत्यन्त द्वेषसे भरा होनेके कारण जो तुझ-जैसा आकार भी नहीं देखना चाहता और तेरा शब्द भी कान में नहीं पड़ने देना चाहता वह धीर-वीर पवनंजय तो आत्मीय जनोंसे पूछकर घरसे बाहर गया हुआ है। हे निलंज्जे ! वह तेरे साथ समागम कैसे कर सकता है ? ॥७-८॥ चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्ज्वल सन्तानको दूषित करनेवाली तथा दोनों लोकोंमें निन्दनीय इस क्रियाको करनेवाली तुझ पापिनको धिक्कार है ॥९॥ जान पड़ता है कि सखी वसन्तमालाने ही तेरे लिए यह उत्तम बुद्धि दी है सो ठीक ही है क्योंकि वेश्या और कुलटा स्त्रियोंकी सेविकाएँ इसके सिवाय करती ही क्या हैं ॥१०॥ उस समय अंजनाने यद्यपि पवनंजयका दिया कड़ा भी दिखाया पर उस दुष्ट हृदयाने उसका विश्वास नहीं किया। विश्वास तो दूर रहा तीक्ष्ण शब्द कहती हुई अत्यन्त १. मतिर्मन्द म.। २. मतिदिग्नाग म.। ३. विषयो गिरः म.। ४. भवत्यां म.। ५. वेश्या वा । ६. परिचारिका म.। ७. श्वश्रुकोपात्यन्त म. ।
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