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पपुराणे अत्यन्तदीनमतस्यां रुदन्त्यां तारनिस्वनम् । मृगोभिरपि निर्मुक्ताः सुस्थूला वाष्पबिन्दवः ॥७९॥ सतश्चिरं रुदित्वैनामरुणीभूतलोचनाम् । सखी दोभ्यां समालिङ्गय जगादेवं विचक्षणा ॥८॥ स्वामिन्यलं रुदित्वा ते नन्ववश्यं पुराकृतम् । नेत्रे निमील्य सोढव्यं कर्म पाकमुपागतम् ॥८१।। सर्वेषामेव जन्तूनां पृष्ठतः पार्वतोऽग्रतः । कर्म तिष्ठति यद्देवि तत्र कोऽवसरः शुचः ॥८॥ अप्सरःशतनेत्रालीनिलयीभूतविग्रहाः । प्राप्नुवन्ति परं दुःखं सुकृतान्ते सुरा अपि ॥८३॥ चिन्तयत्यन्यथा लोकः प्राप्नोति फलमन्यथा । लोकव्यापारसक्तारमा परमो हि गुरुर्विधिः ॥८४॥ हितंकरमपि प्राप्त विधिर्नाशयति क्षणात् । कदाचिदन्यदा धत्ते मानसस्याप्यगोचरम् ॥८५॥ गतयः कर्मणां कस्य विचित्रा परिनिश्चिताः । तस्मात्त्वमस्य मा कार्षीय॑थां गर्भस्य दुःखिता ॥८६॥ आक्रम्य दशनैर्दन्तान्कृत्वा ग्रावसमं मनः । कर्म स्वयं कृतं देवि सहस्वाशक्यवर्जनम् ॥८७॥ ननु स्वयं विबुद्धाया मया ते शिक्षणं कृतम् । अधिक्षेप इवामाति वद ज्ञातं न किं तव ॥८८॥ अभिधायेति सा तस्या नयने शोणरोचिषी । न्यमाट वेपैथुयुतपाणिना सान्त्वतत्परा ॥८९॥ भयश्चीचे प्रदेशोऽयं देवि संश्रयवर्जितः । तस्मादुत्तिष्ठ गच्छावः पार्श्वमस्य महीभृतः ॥१०॥ गुहायामन कस्यांचिदगम्यायां कुजन्तुभिः । सूतिकल्याणसंप्राप्त्यै समयं कचिदास्वहे ॥११॥ ततस्तयोपदिष्टा सा पदवीं पादचारिणी। गर्भभाराद वियञ्चारमसमर्था निषेवितुम् ॥१२॥
गया था ऐसी सखी वसन्तमाला भी प्रतिध्वनिके समान विलाप कर रही थी॥७८॥ यह अंजना बड़ी दीनताके साथ इतने जोर-जोरसे विलाप कर रही थी कि उसे सुनकर वनकी हरिणियोंने भी आँसुओंकी बड़ी-बड़ी बूंदें छोड़ी थीं ।।७।।
तदनन्तर चिरकाल तक रोनेसे जिसके नेत्र लाल हो गये थे ऐसी अंजनाका दोनों भुजाओंसे आलिंगन कर बुद्धिमती सखीने कहा कि हे स्वामिनि ! रोना व्यर्थ है। पूर्वोपार्जित कर्म उदयमें आया है तो उसे आँख बन्द कर सहन करना हो योग्य है ।।८०-८१।। हे देवि ! समस्त प्राणियोंके पीछे, आगे तथा बगलमें कर्म विद्यमान हैं इसलिए यहाँ शोकका अवसर ही क्या है ? ||८२॥ जिनके शरीरपर सैकड़ों अप्सराओंके नेत्र विलीन रहते हैं ऐसे देव भी पुण्यका अन्त होनेपर परम दुःख प्राप्त करते हैं ।।८३।। लोक अन्यथा सोचते हैं और अन्यथा ही फल प्राप्त करते हैं । यथार्थमें लोगोंके कार्यपर दृष्टि रखनेवाला विधाता ही परम गुरु है ।।८४॥ कभी तो यह विधाता प्राप्त हुई हितकारी वस्तुको क्षण भरमें नष्ट कर देता है और कभी ऐसी वस्तु लाकर सामने रख देता है जिसकी मनमें कल्पना ही नहीं थी ।।८५।।
कर्मोंकी दशाएँ बड़ी विचित्र हैं। उनका पूर्ण निश्चय कौन कर पाया है ? इसलिए तुम दुःखी होकर गर्भको पीड़ा मत पहुँचाओ ।।८६।। हे देवि ! दाँतोंसे दांतोंको दबाकर और मनको पत्थरके समान बनाकर जिसका घटना अशक्य है ऐसा स्वोपाजित कर्मका फल सहन करो ।।८७।। वास्तवमें आप स्वयं विशुद्ध हैं अतः आपके लिए मेरा शिक्षा देना निन्दाके समान जान पड़ता है। तुम्हीं कहो कि आप क्या नहीं जानती हैं ? |८८॥ इतना कहकर सान्त्वना देनेमें तत्पर रहनेवाली सखीने अपने काँपते हुए हाथोंसे उसके लाल-लाल नेत्र पोंछ दिये ॥८९|| फिर कहा कि हे देवि ! यह प्रदेश आश्रयसे रहित है अर्थात् यहाँ ठहरने योग्य स्थान नहीं है इसलिए उठो इस पर्वतके पास चलें ॥९०|| यहाँ किसी ऐसी गुफामें जिसमें दुष्ट जीव नहीं पहुँच सकेंगे, गर्भके कल्याणके लिए कुछ समय तक निवास करेंगी ॥९१।।
तदनन्तर सखीका उपदेश पाकर वह पैदल ही मार्ग चलने लगी। क्योंकि गर्भके भारके कारण १. शक्तात्मा म. । २. दुःखिताः म. । दुःसितः ब. । ३. वेपथोर्युक्ता म. । वेपथुर्युक्ता ब. । ४. किंचिदा- म. ।
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