Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 428
________________ ३७८ पद्मपुराणे मुहुर्विश्रम्यमानाल्या' नितान्तप्रियवाक्यया । गिरेः प्रापाञ्जना मूलं शनकैरिति दुःखिता' ॥१०६॥ तत्र धारयितं देहमसक्ता साश्रुलोचना । अपकर्ण्य सखीवाक्यं महाखेदादुपाविशत् ॥१०७॥ जगाद च न शक्नोमि प्रयातुं पदमप्यतः । तिष्टाम्यत्रैव देशेऽहं प्राप्नोमि मरणं वरम् ॥१०॥ सान्त्वयित्वा ततो वाक्यैः कुशला हृदयंगमैः । विश्रमय्य प्रणम्योचे सख्येवं प्रेमतत्परा ॥१०९॥ पश्य पश्य गुहामेतां देवि नेदीयसी पराम् । कुरु प्रसादमुत्तिष्ट स्थास्यावोऽत्र यथासुखम् ॥११॥ प्रदेशे संचरन्तीह प्राणिमः करचेष्टिताः । ननु ते रक्षणीयोऽयं गर्भः स्वामिनि मा मुह ॥११॥ इत्युक्ता सानुरोधेन सख्या वनमयेन च । गमनाय समुत्तस्थौ भूयोऽपि परितापिनी ॥११२॥ महानुभावतायोगादर्नुज्ञातेरभावतः । ह्रींतश्च नान्तिकं वायोरयासिष्टामिमे तदा ॥११३॥ हस्तावलम्बदानेन ततस्तां विषमां भुवम् । लवयित्वा सखी कृच्छाद् गुहाद्वारमुपाहरत् ॥११४॥ प्रवेष्टुं सहसा मीते तत्र ते तस्थतुः क्षणम् । विषमग्रावसंक्रान्तिसंजातविपुलश्रमे ॥११५॥ विश्रान्ताभ्यां चिराद् दृष्टिस्तत्राभ्यां न्यासि मन्दगा। म्लानरक्तशितिश्वेतनीरजसक्समप्रभा ॥११६॥ अपश्यतां ततः शुद्धसमामलशिलातले । पर्यसुस्थितं साधुं चारणातिशयान्वितम् ॥११७॥ निभृतोच्छ्वासनिश्वासं नासिकाग्राहितेक्षणम् । ऋजुश्लथवपुर्यष्टिं स्थाणुवच्चलनोज्झितम् ॥११८॥ खेदके कारण उनका उठाना कठिन हो जाता था ॥१०५॥ अत्यन्त प्रिय वचन बोलनेवाली सखी उसे बार-बार बैठाकर विश्राम कराती थी। इस प्रकार दुःखसे भरी अंजना धीरे-धीरे पहाड़के समीप पहुँची ।।१०६।। वहाँ तक पहुँचनेमें वह इतनी अधिक थक गयी कि शरीर सम्भालना भी दूभर हो गया। उसके नेत्रोंसे आँसू बहने लगे और वह बहुत भारी खेदके कारण सखीकी बात अनसुनी कर बैठ गयी ॥१०७॥ कहने लगी कि अब तो मैं एक डग भी चलनेके लिए समर्थ नहीं है अतः यही ठहरो जाती हैं। यदि यहाँ मरण भी हो जाय तो अच्छा है ॥१०८॥ तदनन्तर प्रेमसे भरी चतुर सखी हृदयको प्रिय लगनेवाले वचनोंसे उसे सान्त्वना देकर तथा कुछ देर विश्राम कराकर प्रणामपूर्वक इस प्रकार बोली ॥१०९।। हे देवि ! देखो-देखो यह पास ही उत्तम गुफा दिखाई दे रही है। प्रसन्न होओ, उठो, हम दोनों उस गुफामें सुखसे ठहरेंगी ॥११०॥ यहाँ कर चेष्टाओंको धारण करनेवाले अनेक जीव बिचर रहे हैं और तुम्हें गर्भकी भी रक्षा करनी है। इसलिए हे स्वामिनि ! गलती न करो ॥१११।। ऐसा कहनेपर सन्तापसे भरी अंजना सखीके अनुरोधसे तथा वनके भयसे पुनः चलनेके लिए उठी ॥११२॥ उस समय ये दोनों स्त्रियाँ वनमें कष्ट तो उठाती रहीं पर पवनंजयके पास नहीं गयीं सो इसमें उनकी महानुभावता, आज्ञाका अभाव अथवा लज्जा ही कारण समझना चाहिए ॥११३।। तदनन्तर सखी वसन्तमाला हाथका सहारा देकर जिस किसी तरह उस ऊंची-नीची भूमिको पार कराकर बड़े कष्टसे अंजनाको गुफाके द्वार तक ले गयी ॥११४॥ ऊँचे-नीचे पत्थरोंमें चलनेके कारण वे दोनों ही बहुत थक गयी थीं और साथ ही उस गुफामें सहसा प्रवेश करनेके लिए डर भी रही थी इसलिए क्षणभरके लिए बाहर ही बैठ गयीं ॥११५।। बहुत देर तक विश्राम करने के बाद उन्होंने अपनी मन्दगामिनी दृष्टि गुफापर डाली। उनकी वह दृष्टि मुरझाये हुए लाल, नीले और सफेद कमलों की मालाके समान जान पड़ती थी ॥११६।। तदनन्तर उन्होंने शुद्ध सम और निर्मल शिला-तलपर पर्यंकासनसे विराजमान चारणऋद्धिके धारक मुनिराजको देखा ॥११७|| उन मुनिराजका श्वासोच्छ्वास निश्चल अथवा नियमित था। उन्होंने अपने नेत्र नासिकाके अग्रभागपर लगा रखे थे, उनकी शरीरयष्टि शिथिल होनेपर १. विश्रम्यमानात्मा म.। २. दुःखिताः म.। ३. इत्युक्त्वा म.। ४. आज्ञायाः। ५. म्लानरक्तासितश्वेत रजतस्त्रक्समप्रभा ख.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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