Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ पद्मपुराणे अथ प्रशान्तया वाचा श्रमणोऽमृतकल्पया । गम्भीरया जगादैवं पाणिमुत्क्षिप्य दक्षिणम् ॥१३१॥ कल्याणि कुशलं सर्वं मम कर्मानुभावतः । ननु सर्वमिदं बाले नैजकर्मविचेष्टितम् ॥१३२॥ पश्यतां कर्मणां लीलां यदिहागोविवर्जिता । बन्धुनिर्वास्यतां याता महेन्द्रस्येयमात्मजा ॥१३३॥ ततोऽकथितविज्ञाततवृत्तान्तं महामुनिम् । कुतूहलसमाक्रान्तमानसा सुमहादरा ॥१३४॥ नत्वा वसन्तमालोचे स्वामिनीप्रियतत्परा । पादयोर्ने त्रकान्त्यास्य कुर्वतीवाभिषेचनम् ॥ १३५॥ विज्ञापयामि नाथ त्वां कृपया वक्तुमर्हसि । परोपकारभूयस्यो ननु युष्मादृशां क्रियाः ॥ १३६ ॥ हेतुना के भर्तास्या चिरं कालं व्यरज्यत । अरज्यत पुनर्दुःखं प्राप्ता चैषा महावने ॥ १३७ ॥ को वातिमन्दभाग्योऽयं जीवोऽस्याः कुक्षिमाश्रयत् । सुखोचितेयमानीता येन जीवितसंशयम् ॥ १३८ ॥ ततः सोऽमितगव्याख्यो ज्ञानत्रयविशारदः । यथावृत्तं जगादास्या वृत्तिरेषा हि धीमताम् ॥१३९॥ वत्से शृणु यतः प्राप्ता भव्येयं दुःखमीदृशम् । पूर्वमाचरितात् पापात् संप्राप्तपरिपाकतः ॥१४०॥ जम्बूति द्वीपे वास्ये भरतनामनि । नगरे मन्दरामिख्ये प्रियनन्दीति सद्गृही ॥ १४१ ॥ जाया जायास्य तत्राभूद्दमयन्ताभिधः सुतः । महासौभाग्यसंपन्नः कल्याणगुणभूषणः ॥ १४२ ॥ अथान्यदा मधौ क्रीडा परमा तत्पुरेऽभवत् । नन्दनप्रतिमोद्याने पौरलोकसमाकुले ॥१४३॥ ३८० अथानन्तर मुनिराज दाहिना हाथ ऊपर उठाकर अमृतके समान प्रशान्त एवं गम्भीर वाणी में इस प्रकार कहने लगे कि हे कल्याणि ! कर्मोंके प्रभावसे मेरा सर्वप्रकार कुशल है । हे बाले ! निश्चयसे यह सब अपने-अपने कर्मोंकी चेष्टा है | १३१ - १३२ ॥ कर्मोंकी लीला देखो जो राजा महेन्द्रकी यह निरपराधिनी पुत्री भाइयों द्वारा निर्वासितपनाको प्राप्त हुई अर्थात् घरसे निकाली जाकर अत्यन्त अनादरको प्राप्त हुई || १३३|| तदनन्तर बिना कहे ही जिन्होंने सब वृत्तान्त जान लिया था ऐसे महामुनिराजको नमस्कार कर बड़े आदरसे वसन्तमाला बोली । उस समय वसन्तमालाका मन कुतूहल से भर रहा था, वह स्वामिनीका भला करने में तत्पर थी । और अपने नेत्रोंकी कान्तिसे मानो मुनिराजके चरणोंका अभिषेक कर रही थी ।। १३४ - १३५ ।। उसने कहा कि हे नाथ ! मैं कुछ प्रार्थना कर रही हूँ सो कृपा कर उसका उत्तर कहिए। क्योंकि आप जैसे पुरुषोंकी क्रियाएँ परोपकार-बहुल ही होती हैं || १३६ || इस अंजनाका भर्ता किस कारणसे चिरकाल तक विरक्त रहा और अब किस कारणसे अनुरक्त हुआ है ? यह अंजना महावन में किस कारणसे दुःखको प्राप्त हुई है ? और मन्द भाग्यका धारक कौन-सा जीव इसकी कुक्षिमें आया है जिसने कि सुख भोगनेवाली इस बेचारीको प्राणोंके संशयमें डाल दिया है ।। १३७-१९३८॥ तदनन्तरमति श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानोंमें निपुण अमितगति नामक मुनिराज अंजनाका यथावत् वृत्तान्त कहने लगे । सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमानोंकी यह वृत्ति है ।। १३९५ उन्होंने कहा कि हे बेटी ! सुन, इस अजनाने अपने पूर्वोपार्जित पापकर्मके उदयसे जिस कारण यह ऐसा दुःख पाया है उसे मैं कहता हूँ || १४० ॥ इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रके मन्दर नामक नगर में एक प्रियनन्दी नामका सद्गृहस्थ रहता था || १४१ ।। उसकी स्त्रीका नाम जाया था । उस स्त्रीसे प्रियनन्दीके दमयन्त नामका ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ था जो महासौभाग्यसे सम्पन्न तथा कल्याणकारी गुणरूपी आभूषणोंसे विभूषित था || १४२ || तदनन्तर वसन्त ऋतु आनेपर नगरमें बड़ा भारी उत्सव हुआ सो नगरवासी लोगों से व्याप्त नन्दनवनके समान सुन्दर उद्यानमें दमयन्त भी अपने मित्रोंके साथ सुखपूर्वक १. भर्तास्य म । २. कोवास्य म । ३ एतन्नाम्नी । ४. स्त्री । ५. महीसोभाग्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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