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सप्तदशं पवं
ततः श्रुत्वा त्रपाहेतुं पिता तस्या विचेष्टितम् । प्रसन्न कीर्तिमित्यूचे परमं कोपमागतः ॥ ३८ ॥ निर्वास्यतां पुरादस्मादरं सा पापकारिणी । यस्था मे चरितं श्रुत्वा वज्रेणेवाहते श्रुती ॥ ३९ ॥ ततो नाम्ना महोत्साहः सामन्तोऽस्यातिवल्लभः । जगाद नाथ नो कर्तुमेवं कर्तुमिमां प्रति ॥ ४० ॥ वसन्तमालया ख्यातं यथास्मै द्वाररक्षिणे । एवमेव न युक्ता तु विचिकित्सा' विकारणो ॥ ४१ ॥
केतुमती क्रूरा लौकिकश्रुतिभाविता । अत्यन्तमविचारास्या विना दोषात्कृतोज्झता ॥४२॥ क्रूरयेयं यथा त्यक्ता कल्याणाचारतत्परा । भवतापि विनिता शरणं कं प्रपद्यताम् ॥४३॥ व्याघ्रदृष्टमृगीवेयं मुग्धास्या त्रासमागता । श्वश्रूतस्त्वां महाकक्षसमं शरणमागता ॥४४॥ सेयं निदाघसूर्यांशु संतापादिव दुःखिता । महातरूपमं बाला विदित्वा त्वां समागता ॥४५॥ श्रीवत् स्वर्गात् परिभ्रष्टा वराकी विह्वलात्मिका । अभ्याख्यानातयालीढा कल्पवल्लीत्र कम्पनी ॥ ४६ ॥ द्वारपाल निरोधेन सुतरामागता त्रपाम् । वैलक्ष्यादंशुकेनाङ्गमवगुण्ठ्य समूर्द्धकम् ॥ ४७ ॥ पितृस्नेहान्वितं द्वारे सदा दुर्लडितात्मिका । तिष्ठतीत्यमुनाख्यातं द्वारपालेन पार्थिव ॥ ४८ ॥ स त्वं कुरु दयामस्यां निर्दोषेयं प्रवेश्यताम् । ननु केतुमती ज्ञाता क्रूरा कस्य न विष्टपे ॥ ४९ ॥ तस्य तद्वचनं श्रोत्रे राज्ञश्चक्रे न संश्रयम् । नलिनीदलविन्यस्तं बिन्दुजालमिवाम्भसः ॥५०॥ जगाद च सखी स्नेहात् कदाचित् सत्यमप्यदः । अन्यथाकथयत्केन निश्चयोऽन्रावधार्यते ॥ ५१ ॥
तदनन्तर पिता पुत्रीकी लज्जाजनक चेष्टा सुनकर परम क्रोधको प्राप्त हुआ और प्रसन्नकीर्ति नामक पुत्रसे बोला ||३८|| कि उस पापकारिणीको इस नगरसे शीघ्र ही निकाल दो। उसका चरित्र सुनकर मेरे कान मानो वज्रसे ही ताड़ित हुए हैं ||३९|| तदनन्तर महोत्साह नामका सामन्त जो राजा महेन्द्रको अत्यन्त प्यारा था बोला, हे नाथ ! इसके प्रति ऐसा करना योग्य नहीं है ॥४०॥ वसन्तमालाने द्वारपालके लिए जैसी बात कही हैं कदाचित् वह वैसी ही हो तो अकारण घृणा करना उचित नहीं है || ४१|| इसकी सास केतुमती अत्यन्त क्रूर है, लौकिक श्रुतियोंसे प्रभावित होनेवाली है और बिलकुल ही विचाररहित है। उसने बिना दोषके ही इसका परित्याग किया है ॥४२॥ कल्याणरूप आचारका पालन करनेमें तत्पर रहनेवाली इस पुत्रीका जिस प्रकार उस दुष्ट सासने परित्याग किया है उसी प्रकार यदि आप भी तिरस्कार कर त्याग करते हैं तो फिर यह किसकी शरण में जायेगी ? ||४३|| जिस प्रकार व्याघ्रके द्वारा देखी हुई हरिणी भयभीत होकर किसी महावनकी शरण में पहुंचती है उसी प्रकार यह मुग्ध-वदना साससे भयभीत होकर महावनके समान जो तुम हो सो तुम्हारी शरण में आयी है || ४४ ॥ | यह बाला मानो ग्रीष्मऋतुक सूर्यकी किरणोंके सन्तापसे ही दुःखी हो रही है और तुम्हें महावृक्षके समान जानकर तुम्हारे पास आयो है ॥४५॥ यह बेचारी स्वर्गंसे परिभ्रष्ट लक्ष्मीके समान अत्यन्त विह्वल हो रही है और अपवादरूपी घामसे युक्त हो कल्पलताके समान काँप रही है || ४६ ॥ द्वारपालके रोकने से यह अत्यन्त लज्जाको प्राप्त हुई है । इसीलिए इसने लज्जावश मस्तक के साथ-साथ अपना सारा शरीर वस्त्रसे ढँक लिया है ||४७॥ पिताके स्नेहसे युक्त होकर जो सदा लाड़-प्यार से भरी रहती थी वह अंजना आज दरवाजे पर रुकी खड़ी है । हे राजन् ! इस द्वारपालने यह समाचार आपसे कहा है ||४८|| सो तुम इसपर दया करो, यह निर्दोष है, इसलिए इसका भीतर प्रवेश कराओ । यथार्थ में केतुमती दुष्ट है यह लोक में कौन नहीं जानता ? ॥ ४९ ॥ | जिस प्रकार कमलिनीके पत्रपर स्थित पानी के बूँदोंका समूह उसपर स्थान नहीं पाता है उसी प्रकार महोत्साह नामक सामन्तके वचन राजा के कानोंमें स्थान नहीं पा सके ॥५०॥ राजाने कहा कि कदाचित् सखीने स्नेहके कारण इस सत्य
१. ग्लानि: । २. अकारणा । विकारिणा म., ज. । ३. कृतोज्झिता म । ४. अभ्याख्यानतया लोढा म. ।
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