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षोडश पर्व
अथापि जननात्प्रभृत्यविरतं सुखं प्राणिनां
मृतेरविरतो भवेन्ननु तथाप्यमुत्रासुखम् । ततो भजत मो जनाः सततभूरिसौख्यावहं
भवासुखतमश्छिदं जिनवरोक्तधर्म रविम् ॥२४३॥
इत्या रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मचरिते पवनाजनासंभोगाभिधानं नाम षोडशं पर्व ॥१६॥
पाजित पुण्य-कमंके उदयसे इष्ट वस्तुका समागम होनेसे सुख होता है और कभी पाप-कर्मके उदयसे परम दुःख प्राप्त होता है क्योंकि इस संसारमें सदा किसीकी स्थिति एक-सी नहीं रहती ।।२४२।। फिर भी धर्म के प्रसादसे कितने ही जीवोंको जन्मसे लेकर मरण-पर्यन्त निरन्तर सुख प्राप्त होता रहता है और मरने के बाद परलोकमें भी उन्हें सुख मिलता रहता है। इसलिए हे भव्य जीवो! निरन्तर अत्यधिक सुख देनेवाले एवं संसारके दुःखरूपी अन्धकारको छेदनेवाले जिनेन्द्रोक्त धर्मरूपी सूर्यको सेवा करो ॥२४३॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरितमें पवनंजय और
अंजनाके सम्भोगका वर्णन करनेवाला सोलहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१६॥
१. भवेत्तनु म. । २. जनः म. ।
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