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पदमपुराणे 'संध्यालोकपरिध्वंसहेतुना तमसान्वितम् । जगत् स्पर्शनविज्ञेयपदार्थममवत्ततः ॥१५०॥ प्राप्तश्चाजनसुन्दर्या गृहे प्रग्रीवकोदरे । वायुरस्थात्प्रविष्टस्तु तस्याः प्रहसितोऽन्तिकम् ॥१५१॥ ततस्तं सहसा दृष्टवा मन्दद्वीपप्रकाशतः। अन्जना विव्यथेऽत्यर्थ कः कोऽयमिति वादिनी ॥१५२॥ सखीं वसन्तमालां च सुप्तां पाव व्यनिद्रयत् । कुशलोत्थाय सा तस्याश्चकार भयनाशनम् ॥१५३॥ ततः प्रहसितोऽस्मीति गदित्वाऽसौ नमस्कृतिम् । प्रयुज्याकथयत्तस्मै पवनंजयमागतम् ॥१५॥ ततः स्वप्नसमं श्रुत्वा प्राणनाथस्य सागमम् । ऊचे प्रहसितं दीनमिदं गद्गदया गिरा ॥१५५॥ किं मां प्रहसितापुण्या हससि प्रियवर्जिताम् । ननु कर्मभिरेवाहं हसितातिमलीमसैः ॥१५६॥ प्रियेण परिभूतेति विदित्वा वद केन नो । परिभूतास्मि निर्भाग्या दुःखावस्थानविग्रहा ॥१५७।। विशेषतस्त्वया कान्तः प्रोत्साह्य करचेतसा । एतामारोपितोऽवस्थां मम कृच्छविधायिनीम् ॥१५८॥ अथवा भद्र ते कोऽत्र दोषः कर्मवशीकृतम् । जगत्सर्वमवाप्नोति दुःखं वा यदि वा सुखम् ॥१५९॥ इति साश्रु वदन्ती तामात्मनिन्दनतत्पराम् । नत्वा प्रहसितोऽवोचद् दुःखार्तीकृतमानसः ।।१६०॥ कल्याणि मा मणीरेवं क्षमस्व जनितं मया। आगो विचारशून्येन पापावष्टब्धचेतसा ॥१६१॥ प्राप्तानि विलयं नूनं दुष्कर्माणि तवाधुना । येन प्रेमगुणाकृष्टो जीवितेशः समागतः ॥१६२।। अधुनास्मिन प्रसन्ने ते किं न जातं सुखावहम् । ननु चन्द्रण शर्वर्याः संगमे का न चारुता ॥१६३॥
हो गया सो रात्रिके समय इन दोनोंका निश्चिन्ततासे समागम हो सके इस करुणासे प्रेरित होकर ही मानो अस्त हो गया था ॥१४९॥ तदनन्तर सन्ध्याके प्रकाशको नष्ट करनेका कारण जो अन्धकार र उससे यक्त होकर समस्त संसार श्याम वर्ण हो गया और समस्त पदार्थ मात्र स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा हो जानने योग्य रह गये ॥१०५।। अंजनासुन्दरीके घर पहुंचकर पवनंजय तो बाह्य बरण्डामें रह गया और प्रहसित उसके पास गया ॥१५॥
तदनन्तर दीपकके मन्द प्रकाशमें उसे सहसा देखकर 'यह कौन है कौन है' ऐसा कहती हुई अंजना अत्यधिक भयभीत हुई ॥१५२॥ उसने पासमें सोयी वसन्तमाला सखीको जगाया सो उस चतुरने उठकर उसका भय नष्ट किया ॥१५३॥ तत्पश्चात् 'मैं प्रहसित हूँ' ऐसा कहकर उसने नमस्कार किया और पवनंजयके आनेकी सूचना दी ॥१५४॥ तब वह स्वप्नके समान प्राणनाथके समागमका समाचार सुन गद्गद वाणीमें दीनताके साथ प्रहसितसे कहने लगी कि ॥१५५।। हे प्रहसित ! मुझ पुण्यहीना तथा पतित्यक्ताकी हँसी क्यों करते हो ? मैं तो अपने मलिन कर्मोंसे स्वयं ही हास्यका पात्र हो रही हूँ॥१५६॥ यह हृदयवल्लभके द्वारा तिरस्कृत है-पतिके द्वारा ठुकरायी गयी है ऐसा जानकर मुझ अभागिनी एवं दुःखिनीका किसने नहीं तिरस्कार किया है ? ॥१५७॥ खासकर दुष्ट चित्तको धारण करनेवाले तुम्हींने प्राणनाथको प्रोत्साहित कर मुझे अत्यन्त दुःख देनेवाली इस अवस्था तक पहुँचाया है ।।१५८।। अथवा हे भद्र ! इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? क्योंकि कमके वशीभूत हुआ समस्त संसार दुःख अथवा सुख प्राप्त कर रहा है ॥१५९॥ इस प्रकार जो अश्रु ढालती हुई कह रही थी तथा अपने आपकी निन्दा करनेमें तत्पर थी ऐसी अंजना सुन्दरीको नमस्कार कर प्रहसित बोला। उस समय प्रहसितका मन दुःखसे द्रवीभूत हो रहा था ॥१६०॥ उसने कहा कि हे कल्याणि! ऐसा मत कहो, मुझ निर्विचार तथा पापयुक्त चित्तके धारकने जो अपराध किया है उसे क्षमा करो ॥१६१।। इस समय तुम्हारे दुष्कर्म निश्चय ही नष्ट हो गये हैं क्योंकि प्रेमरूपी गुणसे खिचा हुआ तुम्हारा हृदयवल्लभ स्वयं आया है ।।१६२॥ अब इसके प्रसन्न रहनेपर तुम्हें कौन-सी वस्तु सुखदायक नहीं होगी? वास्तवमें चन्द्रमाके साथ समागम होनेपर रात्रिमें कोन-सी सुन्दरता नहीं आ जाती ? ॥१६३॥ १. संध्यां म. । २. तपसान्विताम् म. । ३. प्रग्रीवो मत्तवारणः । ४. प्रसन्नेति ।
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