Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 414
________________ ३६४ पद्मपुराणे न कश्विजनितो नाथ त्वया परिभवो मम । अधुना कुर्वता स्नेहं मनोरथसुदुर्लभम् ॥१७७।। स्वस्मृतिप्रतिबद्धं मे वहन्त्या ननु जीवितम् । त्वदायत्तो निकारोऽपि महानन्दसमोऽभवत् ।।१७८।। अथैवं भाषमाणाया विधाय चिबुकेऽङ्गलिम् । उन्नमय्य मुखं पश्यन् जगाद पवनंजयः ॥१७९॥ देवि सर्वापराधानां विस्मृत्यै तव पादयोः । प्रणाममेष यातोऽस्मि प्रसादं परमं व्रज ॥१८॥ इत्युक्त्वा स्थापितं तेन मूर्धानं पादयोः प्रिया । त्वरया करपद्माभ्यामुन्नेतुं व्यापृताभवत् ॥१८१॥ तथावस्थित एवासौ ततोऽवोचत्प्रियं वचः । प्रसन्नास्मीति येनाहमुद्यच्छामि शिरः प्रिये ॥१८२।। क्षान्तमित्युदितोऽथासावुन्नमय्यानमुत्तमम् । चक्रे प्रियासमाश्लेषं सुखामोलितलोचनः ।।१८३॥ आश्लिष्टा दयितस्यासौ तथा गात्रेष्वलीयत । पुनर्वियोगमीतेव गतान्तर्विग्रहं यथा ॥१८॥ आलिङ्गनविमुक्तायास्तस्याः स्तिमितलोचनम् । मुख मुक्तनिमेषाभ्यां लोचनाभ्यां पपौ प्रियः ।।१८५।। पादयोः करयो भ्यां स्तनयोश्चिबुकेऽलिके । गण्डयोनॆत्रयोश्वास्याश्चुम्बनं मदनातुरः ॥१८६॥ पुनः पुनश्चकारासौ स्वेदिना पाणिना स्पृशन् । आप्तसेवा हि सा नूनं क्रियते वक्त्रचुम्बने ॥१८७॥ ततः प्रबुद्धराजीवगर्मच्छदसमप्रभम् । स पपावधरं तस्या विमुञ्चन्तमिवामृतम् ॥१८॥ नीवीविमोचनव्यग्रपाणिमस्य पावती । रोधुमैच्छन्न सा शक्ता पाणिना वेपथुश्रिता ॥१८९।। पतिके साथ वार्तालाप करनेका प्रथम अवसर था इसलिए वह भी लज्जाके कारण मुख नीचा किये थी। उसका सारा शरीर निश्चल था। इसी दशामें उसने धीरे-धीरे उत्तर दिया ॥१७६ कि हे नाथ ! चूँकि इस समय आप जिसकी मुझे आशा ही नहीं थी ऐसा दुर्लभ स्नेह कर रहे हैं इसलिए यही समझना चाहिए कि आपने मेरा कुछ भी तिरस्कार नहीं किया है ॥१७७। मैंने अब तक जो जीवन धारण किया है वह एक आपकी स्मृतिके आश्रय ही धारण किया है। इसलिए आपके द्वारा किया हुआ तिरस्कार भी मेरे लिए महान् आनन्दस्वरूप ही रहा है ।।१७८।। अथानन्तर ऐसा कहती हुई अंजनाकी चिबुकपर अंगुली रख उसके मुखको कुछ ऊंचा उठाकर उसीकी ओर देखते हुए पवनंजयने कहा कि ॥१७९।। हे देवि ! समस्त अपराध भूल जाओ इसलिए मैं तुम्हारे चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, परम प्रसन्नताको प्राप्त होओ ॥१८०॥ इतना कहकर पवनंजयने अपना मस्तक अंजनाके चरणोंमें रख दिया और अंजना उसे अपने करकमलोंसे शीघ्र ही उठानेका प्रयत्न करने लगी ॥१८१।। परन्तु पवनंजय उसी दशामें पड़े रहे। उन्होंने कहा कि हे प्रिये ! जब तुम यह कहोगी कि 'मैं प्रसन्न हूँ तभी सिर ऊपर उठाऊँगा ॥१८२॥ तदनन्तर 'क्षमा किया' अंजनाके ऐसा कहते ही पवनंजयने सिर ऊपर उठाकर उसका आलिंगन किया। उस समय उसके दोनों नेत्र सुखसे निमीलित हो रहे थे॥१८३।। आलिंगित अंजना पतिके शरीर में इस प्रकार लीन हो गयी मानो फिरसे वियोग न हो जावे इस भयसे शरीरके भीतर ही प्रविष्ट होना चाहती थी ।।१८४।। पवनंजयने अंजनाको आलिंगनसे छोड़ा तो निश्चल नेत्रोंसे युक्त उसके मुखको अपने टिमकाररहित नेत्रोंसे देखने लगे ॥१८५॥ तदनन्तर कामसे व्याकुल हो उन्होंने अंजनाके पैरों, हाथों, नाभि, स्तन, दाढ़ी, ललाट, कपोलों और नेत्रोंका चुम्बन किया ॥१८६॥ एक ही बार नहीं, किन्तु पसीनासे युक्त हाथसे स्पर्श करते हुए उन्होंने पुनः पुनः उन स्थानोंका चुम्बन किया जो ठोक ही है क्योंकि मुखका चुम्बन करनेके लिए वह आप्त सेवा है सो प्रेमीजनोंको करना ही पड़ता है ।।१८७॥ तदनन्तर खिले हुए कमलके भीतरी दलके समान जिसकी कान्ति थी और मानो जो अमृत ही छोड़ रहा था ऐसे उसके अधरोष्ठका पान किया ॥१८८॥ नीवीकी गाँठ खोलने १. त्वत्स्मृतिबद्धं म. । २. अथैव म. । ३. प्रसन्नोऽस्मीति म०, ब. । ४: सुखमीलित-म. । ५. ज्ञातान्तविग्रहं यथा ख. म ,ब., ज.। ६. न चाशक्ता म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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