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षोडशं पर्व
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वाष्पाकुलितनेत्राभ्यां मङ्गलध्वंसभीतितः । आशीर्दानप्रवृत्ताभ्यां पितृभ्यां मूनि चुम्बितः॥८॥ आपृच्छय बान्धवान् सर्वानभिवाद्य च सस्मितः । संमाष्य प्रणतं भक्तं परिवर्गमशेषतः ॥८॥ दक्षिणेनाघ्रिणा पूर्व कृतोच्चालः स्वभावतः । दक्षिणेन कृतानन्दः स्फुरता बाहुना मुहुः ॥८२॥ सपल्लवमुखे पूर्णकुम्भे निहितलोचनः । क्रामन् (वे) मवनादेष सहसैक्षत गेहिनीम् ॥८३॥ द्वारस्तम्भनिषण्णाङ्गां वाष्पस्थगितलोचनाम् । नितम्बनिहितभ्रंसिनिरादरचलद्भुजाम् ॥८॥ ताम्बलरागनिर्मक्तधूसरद्विजवाससम् । तस्मिन्नेव समुत्कीणां मलिनां सालभञ्जिकाम् ॥४५॥ विद्युतीव ततो दृष्टिं तस्यामापतितां क्षणात् । संहृत्य कुपितोऽवादीदिति प्रह्लादनन्दनः ॥८६॥ अमुष्मादपसर्पाशु देशादपि दुरीक्षणे । उल्कामिव समर्थोऽहं भवतीं न निरीक्षितुम् ॥८७॥ अहो कुलाङ्गनायास्ते प्रगल्भत्वमिदं परम् । यत्पुरोऽनिष्यमाणापि तिष्ठसि पयोज्झिते ॥४८॥ ततोऽत्यन्तमपि रं तद्वाक्यं भर्तृभक्तितः । तृषितेव चिराल्लब्धममृतं मनसा पपौ ॥८९॥ जगाद चाञ्जलिं कृत्वा तत्पादगतलोचना । संस्खलन्ती मुहुर्वाचमुगिरन्ती प्रयत्नतः ॥१०॥ तिष्ठतापि त्वया नाथ भवनेऽत्र विवर्जिता । त्वत्सामीप्यकृताश्वासा जीवितारम्यतिकृच्छतः ॥११॥ जीविष्याम्यधुना स्वामिन्कथं दूरं गते त्वयि । त्वत्सद्वचोऽमृतास्वादस्मरणेन विनातुरा ॥१२॥ कृतं छेकगणस्यापि त्वया संभाषणं प्रमो । यियासुना परं देशमतिस्नेहाचेतसा ॥९३॥
चमा था ऐसा पवनंजय भावपूर्वक सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर. समस्त बन्धजनोंसे पछकर. गरुजनोंका अभिवादन कर तथा भक्तिसे नम्रीभत समस्त परिजनसे वार्तालाप कर मन्द-मन्द हंसता हुआ घरसे निकला ||७९-८१॥ उसने स्वभावसे हो सर्वप्रथम दाहिना पैर ऊपर उठाया था । बारबार फड़कती हुई दाहिनी भुजासे उसका हर्ष बढ़ रहा था ।।८२॥ और जिसके मुखपर पल्लव रखे हुए थे ऐसे पूर्णकलशपर उसके नेत्र पड़ रहे थे। महलसे निकलते ही उसने सहसा अंजनाको देखा ।।८३।। अंजना द्वारके खम्भेसे टिककर खड़ी थी, उसके नेत्र आँसुओंसे आच्छादित थे, कमरको सहारा देनेके लिए वह अपनी भुजा नितम्बपर रखती भली थी पर दुर्बलताके कारण वह भुजा नितम्बसे नीचे हट जाती थी ।।८४॥ पानकी लालीसे रहित होनेके कारण उसके ओठ अत्यन्त धूसरवर्ण थे और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो उसी खम्भेमें उकेरी हुई एक मैली पुतली ही हो ।।८५।।
तदनन्तर मनुष्य जिस प्रकार बिजलीपर पड़ी दृष्टिको सहसा संकुचित कर लेता है-उससे दूर हटा लेता है उसी प्रकार पवनंजयने अंजनापर पड़ी अपनी दृष्टिको शीघ्र ही संकुचित कर लिया तथा कुपित होकर कहा कि ||८६।। हे दुरवलोकने ! तू इस स्थानसे शीघ्र ही हट जा। उल्काकी तरह तुझे देखनेके लिए मैं समर्थ नहीं हूँ॥८७।। अहो, कुलांगना होकर भी तेरी यह परम धता है जो मेरे न चाहनेपर भी सामने खडी है। बडी निर्लज्ज है॥८८| पवनंजयके उक्त वचन यद्यपि अत्यन्त क्रूर थे तो भी जिस प्रकार चिरकालका प्यासा मनुष्य प्राप्त हुए जलको बड़े मनोयोगसे पीता है उसी प्रकार अंजना स्वामीमें भक्ति होनेके कारण उसके उन क्रूर वचनोंको बड़े मनोयोगसे सुनती रही ।।८९।। उसने स्वामीके चरणोंमें नेत्र गड़ाकर तथा हाथ जोड़कर कहा। कहते समय वह यद्यपि प्रयत्नपूर्वक वचनोंका उच्चारण करती थी तो भी बार-बार चूक जाती थी, चुप रह जाती थी, अथवा कुछका कुछ कह जाती थी ॥९०।। उसने कहा कि हे नाथ ! इस महलमें रहते हुए भी मैं आपके द्वारा त्यक्त हूँ फिर भी 'मैं आपके समीप ही रह रही हूँ' इतने मात्रसे ही सन्तोष धारणकर अब तक बड़े कष्टसे जीवित रही हूँ ॥९१।। पर हे स्वामिन् ! अब जब कि आप दूर जा रहे हैं निरन्तर दुःखी रहनेवाली मैं आपके सद्वचनरूपी अमृतके स्वादके बिना किस प्रकार जीवित रहूँगी ? ॥९२।। हे प्रभो! परदेश जाते समय आपने स्नेहसे आई चित्त होकर १. निष्ट्रयमाणापि म. । २. भुवनेऽत्र म. । ३. सेवकगणस्यापि ।
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