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पद्मपुराणे अनन्यगतचित्ताहं त्वदसंगमदुःखिता । कथं नान्यमुखेनापि त्वया संभाषिता विभो ॥९॥ त्यक्ताया मे त्वया नाथ समस्तेऽप्यत्र विष्टपे । विद्यते शरणं नान्यदथवा मरणं भवेत् ॥१५॥ ततस्तेन म्रियस्वेति संकोचितमुखेन सा । सती निगदितापप्तद्विषण्णा धरणीतले ॥१६॥ वायुरप्युत्तमामृद्धिं दधानः कृपयोज्झितः । परमं नागमारुह्य सामन्तैः प्रस्थितः समम् ॥१७॥ वासरे प्रथमे वासी संप्राप्तो मानसं सरः। आवासयत्तटे तस्य सेनामश्रान्तवाहनः ॥१८॥ तस्यावतरतः सेना शुशुभे हि नभस्तलात् । सुरसंततिवन्नानायानशस्त्रविभूषणा ॥१९॥ आत्मनो वाहनानां च चक्रे कार्य यथोचितम् । स्नानप्रत्यवसानादिविद्याभृद्भिः सुमानसैः ।।१०।। अथ विद्याबलादाशु रचिते बहुभूमिके । युक्तविस्तारतुङ्गत्वे प्रासादे चित्तहारिणि ॥१०॥ सहोपरितले कुर्वत् स्वरं मित्रेण संकथाम् । वरासनगतो भाति संग्रामकृतसंमदः ॥१०२॥ गवाक्षजालमार्गेण छिद्रेण तटभूरुहान् । ईक्षाञ्चक्रे सरो वायुर्मन्दवायुविघट्टितम् ॥१.३॥ भीमैः कूमैंझपैनक्रर्मकरैर्दर्पधारिमिः । भिन्नवीचिकमन्यैश्च यादोभिरिति भूरिभिः ॥१०॥ धौतस्फटिकस्तुल्याम्भः कमलोत्पलभूषितम् । हंसः कारण्डवः क्रौञ्चः सारसैश्चोपशोभितम् ॥१०५॥
मैन्द्रकोलाहलादेषा मनःश्रोत्रमलिम्लुचम् । तदन्तरश्रुतोदात्तभ्रमरीकुलझकृतम् ॥१०६॥ सेवक जनोंसे भी सम्भाषण किया है फिर मेरा चित्त तो एक आपमें ही लग रहा है और आपके ही वियोगसे निरन्तर दुःखी रहती हूँ फिर स्वयं न सही दूसरेके मुखसे भी आपने मुझसे सम्भाषण क्यों नहीं किया ? ॥९३-९४।। हे नाथ ! आपने मेरा त्याग किया है इसलिए इस समस्त संसारमें दूसरा कोई भी मेरा शरण नहीं है अथवा मरण हो शरण है ॥२५॥
तदनन्तर पवनंजयने मुख सिकोड़कर कहा कि 'मरो' । उनके इतना कहते ही वह खेदखिन्न हो मूछित होकर पृथिवीपर गिर पड़ी ॥९६|| इधर उत्तम ऋद्धिको धारण करता हआ निर्दय पवनंजय उत्तम हाथीपर सवार हो सामन्तोंके साथ आगे बढ़ गया ।।९७।। प्रथम दिन वह मानसरोवरको प्राप्त हुआ सो यद्यपि उसके वाहन थके नहीं थे तो भी उसने मानसरोवरके तटपर सेना ठहरा दी ।।९८॥ ___आकाशसे उतरते हुए पवनंजयकी नाना प्रकारके वाहन और शस्त्रोंसे सुशोभित सेना ऐसी जान पड़ती थी मानो देवोंका समूह ही नीचे उतर रहा हो ॥९९|| प्रसन्नतासे भरे विद्याधरोंने अपने तथा वाहनोंके स्नान-भोजनादि समस्त कार्य यथायोग्य रीतिसे किये ॥१००।
अथानन्तर विद्याके बलसे शीघ्र ही एक ऐसा मनोहर महल बनाया गया कि जिसमें अनेक खण्ड थे तथा जिसकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई अनुरूप थी, उस महलके ऊपरके खण्डपर मित्रके साथ स्वच्छन्द वार्तालाप करता हुआ पवनंजय उत्कृष्ट आसनपर विराजमान था। युद्धकी वार्तासे उसका हर्ष बढ़ रहा था ॥१०१-१०२॥
पवनंजय झरोखोंके मार्गसे किनारेके वृक्षोंको तथा मन्द-मन्द वायुसे हिलते हुए मानसरोवरको देख रहा था ॥१०३॥ भयंकर कछुए, मीन, नक्र, गर्वको धारण करनेवाले मगर तथा अन्य अनेक जल-जन्त उस सरोवरमें लहरें उत्पन्न कर रहे थे ॥१०४॥ धले हए स्फटिकके समान स्वच्छ तथा कमलों और नील कमलोंसे सुशोभित उस सरोवरका जल हंस, कारण्डव, क्रौंच और सारस पक्षियोंसे अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।१०५॥ इन सब पक्षियोंके गम्भीर कोलाहलसे वह सरोवर मन और कर्ण-दोनोंको चुरा रहा था। तथा उसके
१. नान्यसुखेनापि । २. हेमभूमिके म. । ३. मन्दकोलाहलं देशं म. । ४. भ्रमरीकुलझंकृति ख.।
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