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पद्मपुराणे नूनमासन्नमृत्युस्त्वं येनैवं भाषसे स्फुटम् । अमिधायेति तं दृतो गत्वा भने न्यवेदयत् ॥४०॥ ततः परमकोपेन परितो वारुणं पुरम् । अरुणद्रावणो युक्तः सेनयोदधिकल्पया ॥४१॥ प्रतिज्ञा च चकारेमा रत्नैरेष मया विना । नेतव्यश्चपलो भङ्गं मृत्यु वेति ससंभ्रमः ॥४२॥ राजीवपौण्डरीकाद्याः क्षुब्धा वरुणनन्दनाः । विनिर्ययुः सुसन्नद्धाः श्रुत्वा प्राप्तं बलं द्विषः ॥४३॥ रावणस्य बलेनामा तेषां युद्धमभूत्परम् । अन्योन्यापातसंच्छिन्न विविधायुधसंहतिः ॥४४॥ गजा गजैः समं सक्ता वाजिनोऽश्वै रथा रथैः । भटा भटैः कृतारावा दष्टोष्ठा रक्तलोचनाः ॥४५॥ 'पराचीनं ततः सैन्यं त्रैकूटैर्वारुणं कृतम् । चिराय कृतसंग्राम दत्तसोढायुधोत्करम् ॥४६॥
जलकान्तस्ततः क्रुद्धः कालाग्निरिव दारुणः । अधावक्षसां सैन्यं हेतिपञ्जरमध्यगः ॥४७॥ ततो दुर्वारवेगं तं दृष्ट्वायान्तं रणाङ्गणे । गोपायितः स्ववाहिन्या रावणो दीप्तशस्त्रया ॥४८॥ वरुणेन कृताइवासास्ततस्तस्य सुताः पुनः । परमं योद्धमारब्धा विध्वस्तभटकुञ्जराः ॥४९॥ ततो यावदशग्रीवः क्रोधदीपितमानसः । गृह्णाति कार्मुकं क्रूरः भ्रकुटीकुटिलालिकः ॥५०॥ दतयुद्धश्चिरं तावत्खेदवर्जितमानसः। वाहणीनां शतेनाशु गृहीतः खरदूषणः ॥५॥
ततश्चित्ते दशग्रीवश्चकारात्यन्तमाकुलः । यथा न शोभतेऽस्माकमधुना रणधीरिति ॥५२॥ बहुत बढ़ गया है इसलिए वह इन रत्नोंके साथ आवे मैं आज उसे बिना नामका कर दूँ अर्थात् लोकसे उसका नाम ही मिटा दूं ॥३९॥ निश्चय ही तुम्हारी मृत्यु निकट आ गयी है इसलिए ऐसा स्पष्ट कह रहे हो' इतना कहकर दूत चला गया और जाकर उसने रावणसे सब समाचार कह सुनाया ॥४०॥
तदनन्तर समुद्र के समान भारी सेनासे युक्त रावणने तीव्र क्रोधवश जाकर वरुणके नगरको चारों ओरसे घेर लिया ॥४१।। और सहसा उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं देवोपनीत रत्नोंके बिना ही इस चपलको पराजित करूँगा अथवा मृत्युको प्राप्त कराऊँगा ॥४२॥ राजीव पौण्डरीक
आदि वरुणके लड़के बहुत क्षोभको प्राप्त हुए और शत्रुकी सेना आयो सुन तैयार हो-होकर युद्धके लिए बाहर निकले ॥४३।। तदनन्तर रावणकी सेनाके साथ उनका घोर युद्ध हुआ। युद्ध के समय नाना शस्त्रोंके समूह परस्परकी टक्करसे टूट-टूटकर नीचे गिर रहे थे ॥४४॥ हाथी हाथियोंसे, घोड़े घोड़ोंसे, रथ रथोंसे और योद्धा योद्धाओंके साथ भिड़ गये। उस समय योद्धा बहुत अधिक हल्ला कर रहे थे, ओठ डॅस रहे थे तथा क्रोधके कारण उनके नेत्र लाल-लाल हो रहे थे ।।४५।। तदनन्तर जिसने चिरकाल तक युद्ध किया था और शस्त्रसमूहका प्रहार कर स्वयं भी उसकी चोट खायी थी ऐसी वरुणकी सेना, रावणकी सेनासे पराङ्मुख हो गयी ॥४६।। तत्पश्चात् जो क्रुद्ध होकर प्रलयकालकी अग्निके समान भयंकर था और शस्त्ररूपी पंजरके बीचमें चल रहा था ऐसा वरुण राक्षसोंकी सेनाकी ओर दौडा ॥४७॥ तदनन्तर जिसका वेग बडी कठिनाईसे रोका जाता था ऐसे वरुणको रणांगण में आता देख देदीप्यमान शस्त्रोंकी धारक सेनाने रावणकी रक्षा को ॥४८॥ तत्पश्चात् वरुणका आश्वासन पाकर उसके पुत्र पुनः तेजीके साथ युद्ध करने लगे और उन्होंने अनेक योद्धारूपी हस्तियोंको मार गिराया ।।४९।। तदनन्तर जिसका चित्त खेदसे देदीप्यमान हो रहा था और ललाट भौंहोंसे कुटिल था ऐसे क्रूर रावणने जबतक धनुष उठाया तबतक वरुणके सो पुत्रोंने शीघ्र ही खरदूषणको पकड़ लिया। खरदूषण चिरकालसे युद्ध कर रहा था फिर भी उसका चित्त खेदरहित था ॥५०-५१|| तदनन्तर रावणने अत्यन्त व्याकुल होकर मनमें विचार
१ पराङ्मुखम् । २. त्रिकूटाचलवासिभिः रावणीयैरिति यावत् । त्रिकूट -म. । ३. संग्रामसोढा -म.। ४. वरुणः । ५. वरुणस्यापत्यानि पुमांसो वारुणयस्तेषां वारुणीनाम् ।
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