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पद्मपुराणे अयि नाथ तवाङ्गानि मनोज्ञानि कथं मम । अङ्गानां हृदयस्थानि कुर्वते तापमुत्तमम् ॥१२॥ ननु ते 'जनितः कश्चिन्नापराधो मया प्रभो । कारणेन विना कस्मात्कोपं यातोऽसि मे परम् ॥१३॥ प्रसीद तव भक्तास्मि कुरु मे चित्तनिवृतिम् । बहिर्दर्शनदानेन रचितोऽञ्जलिरेष ते ॥१४॥ द्यौरिवादित्यनिर्मुक्ता चन्द्रहीनेव शर्वरी । त्वया विना न शोभेऽहं विद्येव च गुणोज्झिता ॥१५॥ प्रयच्छन्तीत्युपालम्भं पत्ये मानसवासिने । बिन्दून् मुक्ताफलस्थूलान मुञ्चन्ती लोचनाम्भसः ॥१६॥ विद्यमाना भ्रदिष्टेषु कुसुमस्रस्तरेष्वपि । गुरुवाक्यानुरोधेन कुर्वती वपुषः स्थितिम् ॥१७॥ चक्रारूढमिवाजखं स्वं दधाना कृतभ्रमम् । संस्कारविरहाद भं भ्रमन्ती केशसंचयम् ॥१८॥ तेजोमयीव संतापाजलात्मेवाश्रुसंततेः । शून्यत्वाद्गगनात्मेव पार्थिवीवाक्रियात्मतः ॥१९॥ संततोत्कलिकायोगाद्वायुनेव विनिर्मिता । तिरोऽवस्थितचैतन्याद्भूतमात्रोपमास्मिका ॥२०॥ भूमौ निक्षिप्तसवोगानोपवेष्टुमपि क्षमा। उपविष्टा च नोत्थात देहं नोद्धर्तमुत्थिता ॥२१॥ सखीजनांसविन्यस्तविगलत्पाणिपल्लवा । भ्राम्यन्ती कुट्टिमाङ्केऽपि प्रस्खलञ्चरणा मुहः ॥२२॥ स्पृहयन्त्यनुयाताभ्यः प्रियैश्राटुविधायिमिः । वराकी छेककान्ताभ्यस्तद्गतास्पन्दवीक्षणा ॥२३॥
प्रियात्परिभवं प्राप्ता कारणेन विवर्जिता । निन्ये सा दिवसान् कृच्छ्रादीना संवत्सरोपमान् ॥२४॥ बार-बार मूच्छित हो जाती थी ।।११।। हे नाथ ! तुम्हारे मनोहर अंग मेरे हृदयमें विद्यमान हैं फिर वे अत्यधिक सन्ताप क्यों उत्पन्न कर रहे हैं ? ॥१२॥ हे प्रभो! मैंने आपका कोई अपराध नहीं किया है फिर अकारण अत्यधिक क्रोधको क्यों प्राप्त हुए हो ? ॥१३॥ हे नाथ ! मैं आपकी भक्त हूँ अतः प्रसन्न होओ और बाह्यमें दर्शन देकर मेरा चित्त सन्तुष्ट करो। लो, मैं आपके लिए यह हाथ जोड़ती हूँ ॥१४॥ जिस प्रकार सूर्यसे .रहित आकाश, चन्द्रमासे रहित रात्रि और गुणोंसे रहित विद्या शोभा नहीं देती उसी प्रकार आपके बिना मैं भी शोभा नहीं देती ॥१५।। इस प्रकार वह मनमें निवास करने वाले पतिके लिए उलाहना देती हुई मुक्ताफलके समान स्थूल आसुओंकी बँदें छोड़ती रहती थी ॥१६॥ वह अत्यन्त कोमल पुष्यशय्या पर भी खेदका अनुभव करती थी
और गुरुजनोंका आग्रह देख बड़ी कठिनाईसे भोजन करती थी ॥१७॥ वह चक्रपर चढ़े हुएके समान निरन्तर घूमती रहती थी और तेल कंघी आदि संस्कारके अभावमें जो अत्यन्त रूक्ष हो गये थे ऐसे केशोंके समहको धारण करती थी । उसके शरीरमें निरन्तर सन्ताप विद्यम रहता था इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो तेजःस्वरूप ही है। निरन्तर अश्रु निकलते रहनेसे ऐसी जान पड़ती थी मानो जलरूप ही हो । निरन्तर शून्य मनस्क रहनेसे ऐसी जान पड़ती थी मानो आकाश रूप ही हो और अक्रिय अर्थात् निश्चल होने के कारण ऐसी जान पड़ती थी मानो पृथिवी रूप ही हो ॥१९।। उसके हृदयमें निरन्तर उत्कलिकाएँ अर्थात् उत्कण्ठाएँ ( पक्षमें तरंगें) उठती रहती थीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो वायुके द्वारा रची गयी हो और चेतना शक्तिके तिरोभूत होनेसे ऐसी जान पड़ती थी मानो पथिवी आदि भतचतष्टय रूप ही हो ॥२०॥ वह पृथिवीपर समस्त अवयव फैलाये पड़ी रहती थी, बैठनेके लिए भी समर्थ नहीं थी। यदि बैठ जाती थी तो उठने के लिए असमर्थ थी और जिस किसी तरह उठती भी तो शरीर सम्भालने की उसमें क्षमता नहीं रह गयी थी॥२१॥ यदि कभी चलती थी तो सखी जनोंके कन्धों पर हाथ रख कर चलती थी। चलते समय उसके हाथ सखियोंके कन्धोंसे बार बार नीचे गिर जाते थे और मणिमय फर्श पर भी बार बार उसके पैर लड़खड़ा जाते थे ॥२२॥ चापलूसी करनेवाले पति सदा जिनके साथ रहते थे ऐसी चतुर स्त्रियोंको वह बड़ी स्पृहाके साथ देखती थी और उन्हींकी ओर उसके निश्चल नेत्र लगे रहते थे ॥२३॥ जो पतिसे तिरस्कारको प्राप्त थी तथा अकारण ही जिसका १. जानतः म.। २. धोरेवा-म.। ३. खिद्यमानात्र दिष्टेषु म.। ४. अतिशयेन मृदुषु । ५. संदधाना म.। ६.द्र पमात्रोपमात्मिका म.। ७. नोद्वर्तु म.। ८. भ्राम्यन्ति म.।
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