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द्वितीयं पर्व
तिमिर्मानुषैर्देवैः कृत्वा तृप्तिं ततः पुनः । स्वपित्येव विमुक्तान्यनिःशेषपुरुष स्थितिः ।। २३६॥ अहो कुकविभिर्मूखैर्विद्याधरकुमारकः । अभ्याख्यानमिदं नीतो दुःकृतग्रन्थकत्थकैः ॥ २३७॥ एवंविधं किल ग्रन्थं रामायणमुदाहृतम् । शृण्वतां सकलं पापं क्षयमायाति तत्क्षणात् ॥ २३८ ॥ तापत्यजनचित्तस्य सोऽयमग्निसमागमः । शीतापनोदकामस्य तुषारानिलसंगमः ॥२३९|| हैयङ्गवीन काङक्षस्य तदिदं जलमन्थनम् । सिकतापीडैनं तैलमवाप्तुमभिवाञ्छतः ॥ २४०॥ महापुरुषचारित्रकूटदोषविभाविषु । पापैरधर्मशास्त्रेषु धर्मशास्त्रमतिः कृता || २४१॥ अमराणां किलाधीशो रावणेन पराजितः । आकर्णाकृष्टनिर्मुकैर्बाणैर्मर्मविदारिभिः ॥ २४२ ॥ देवानामधिपः क्वासौ वराकः क्वैष मानुषः । तस्य चिन्तितमात्रेण यायाद् यो भस्मराशिताम् ॥२४३॥ ऐरावतो गजो यस्य यस्य वज्रं महायुधम् । समेरुवारिधिं क्षोणीं योऽनायासात् समुद्धरेत् || २४४॥ सोऽयं मानुषमात्रेण विद्याभाजाऽल्पशक्तिना । आनीयते कथं भङ्गं प्रभुः स्वर्गनिवासिनाम् || २४५॥ बन्दीगृह गृहीतोऽसौ प्रभुणा रक्षसां किल । लङ्कायां निवसन् कारागृहे नित्यं सुसंयतः || २४६ || मृगैः सिंहवधः सोऽयं शिलानां पेषणं तिलैः । वधो गण्डूपदेना हेर्गजेन्द्र शसनं शुना ||२४७ ॥
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धारण करनेवाला वह कुम्भकर्णं जब जागता था तब भूख और प्याससे इतना व्याकुल हो उठता था कि सामने हाथी आदि जो भी दिखते थे उन्हें खा जाता था । इस प्रकार वह बहुत ही दुर्धर था ॥ २३५॥ तिर्यंच, मनुष्य और देवोंके द्वारा वह तृप्ति कर पुनः सो जाता था उस समय उसके पास अन्य कोई भी पुरुष नहीं ठहर सकता था || २३६ ॥ अहो ! कितने आश्चर्य की बात है कि पापवर्धक खोटे ग्रन्थों की रचना करनेवाले मूर्ख कुकवियोंने उस विद्याधर कुमारका कैसा बीभत्स चरित चित्रण किया है || २३७ || जिसमें यह सब चरित्र-चित्रण किया गया है वह ग्रन्थ रामायणके नामसे प्रसिद्ध है और जिसके विषयमें यह प्रसिद्धि है कि वह सुननेवाले मनुष्यों के समस्त पाप तत्क्षण में नष्ट कर देता है || २३८ || सो जिसका चित्त तापका त्याग करनेके लिए उत्सुक है उसके लिए यह रामायण मानो अग्निका समागम है और जो शीत दूर करनेकी इच्छा करता है उसके लिए मानो हिममिश्रित शीतल वायुका समागम है || २३९ || घीकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यका जिस प्रकार पानीका बिलोवना व्यर्थ है और तेल प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यका बालूका पेलना निःसार है उसी प्रकार पाप त्यागकी इच्छा करनेवाले मनुष्यका रामायणका आश्रय लेना व्यर्थ है ॥२४०॥ जो महापुरुषोंके चारित्रमें प्रकट करते हैं ऐसे अधर्म शास्त्रों में भी पापी पुरुषोंने धर्मशास्त्रकी कल्पना कर रखी है || २४१ || रामायण में यह भी लिखा है कि रावणने कान तक खींचकर छोड़े बाणों देवोंके अधिपति इन्द्रको भी पराजित कर दिया था ||२४२ || अहो ! कहाँ तो देवोंका स्वामी इन्द्र और कहाँ वह तुच्छ मनुष्य जो कि इन्द्रकी चिन्तामात्र से भस्मकी राशि हो सकता है ? ॥२४३॥ जिसके ऐरावत हाथी था और वज्र जैसा महान् शस्त्र था तथा जो सुमेरु पर्वत और समुद्रोंसे सुशोभित पृथिवीको अनायास ही उठा सकता था ॥ २४४॥ | ऐसा इन्द्र अल्प शक्ति के धारक विद्याधरके द्वारा जो कि एक साधारण मनुष्य ही था कैसे पराजित हो सकता था ॥ २४५ ॥ उसमें यह भी लिखा है कि राक्षसोंके राजा रावणने इन्द्रको अपने बन्दीगृहमें पकड़कर रखा था और उसने बन्धनसे बद्ध होकर लंकाके बन्दीगृहमें चिरकाल तक निवास किया था ||२४६ || सो ऐसा कहना मृगों द्वारा सिंहका वध होना, तिलोंके द्वारा शिलाओंका पीसा जाना, पनिया साँपके द्वारा नागका मारा जाना और कुत्ता के द्वारा गजराजका दमन होने के समान है || २४७|| व्रतके धारक
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१. कुमारकैः क. । २. कच्छकैः म । ३. तापश्च जन ( ? ) म. । ४. कामस्य म. । ५. पीलनं ख. । ६. सोऽहं म ।
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