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पद्मपुराणे तेभ्यो जगाद यज्ञस्य विधानार्थमहं स्वयम् । ब्रह्मा लोकमिमं प्राप्तो येन सृष्टं चराचरम् ॥८३॥ यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव मयादरात् । यज्ञो हि भूत्यै स्वर्गस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥८४॥ सौत्रामणिविधानेन सुरापानं न दुष्यति । अगम्यागमन कार्यं यज्ञे गोसवनामनि ॥८५॥ मातृमेधे वधो मातुः पितृमेधे वधः पितुः । अन्तर्वेदि विधातव्यं दोषस्तत्र न विद्यते ॥८६॥ आशुशुक्षणिमाधाव' पृष्ठे कूर्मस्य तर्पयेत् । हविषा जुहकाख्याय स्वाहेत्युक्त्वा प्रयत्नतः ॥८७॥ यदा न प्राप्तुयात् कूर्म तदा शुद्धद्विजन्मनः । खलतेः पिङ्गलाभस्य विक्लवस्य शुचौ जले ॥८॥ "आस्यदध्नेऽवतीर्णस्य मस्तके कूर्मसंनिभे । प्रज्वाल्य ज्वलनं दीप्तमाहुतिं निक्षिपेद् द्विजः ॥८९॥ सर्व पुरुष एवेदं यद्भूतं यद्भविष्यति । ईशानो योऽमृतत्वस्य यदन्नेनातिरोहति ॥१०॥ एवमेकत्र पुरुषे किं केनात्र विपाद्यते । कुरुतातो यथाभीष्टं यज्ञे प्राणिनिपातनम् ॥११॥ मांसस्य भक्षणं तेषां कर्तव्यं यज्ञकर्मणि । यायजूकेन पूतं हि देवोद्देश्येन तत्कृतम् ॥१२॥ एवंप्रकारमत्यन्तपापकर्म प्रदर्शयन् । प्राणिनः प्रवणांश्चक्रे राक्षसो धरणीतले ॥१३॥ अधानास्ततो भूत्वा जन्तवः सुखवाग्छया। हिंसायज्ञस्थली भूमि 'दीक्षिता प्रविशन्ति ये ॥९४॥ काष्ठभारं यथा सर्व प्राध्वंकृत्य स तान् दृढम् । मयोद्भुतमहाकम्पान् चलत्तारकलोचनान् ॥१५॥ पृष्टस्कन्धशिरोजङ्घा-पादाप्रस्थान्विधाय खम् । उत्पपात पतद्रक्तधारानिकरदुःखितान् ॥९६॥
कि अग्निपर पतंगे पड़ते हैं ।।८२॥ वह उन लोगोंसे कहता था कि मैं वह ब्रह्मा हूँ जिसने इस चराचर विश्वकी रचना की है। यज्ञकी प्रवृत्ति चलानेके लिए मैं स्वयं इस लोकमें आया हूँ॥८३॥ मैंने बड़े आदरसे स्वयं ही यज्ञके लिए पशुओंकी रचना की हैं। यथार्थमें यज्ञ स्वर्गकी विभूति प्राप्त करानेवाला है इसलिए यज्ञमें जो हिंसा होती है वह हिंसा नहीं है ॥८४|| सौत्रामणि नामक यज्ञमें मदिरा पीना दोषपूर्ण नहीं है और गोसव नामक यज्ञमें अगम्या अर्थात् परस्त्रीका भी सेवन किया जा सकता है ॥८५|| मातमेध यज्ञमें माताका और पितमेध यज्ञमें पिताका वध वेदीके मध्यमें करना चाहिए इसमें दोष नहीं है ।।८६॥ कछुएकी पीठपर अग्नि रखकर जुह्वक नामक देवको बड़े प्रयत्नसे स्वाहा शब्दका उच्चारण करते हुए साकल्यसे सन्तृप्त करना चाहिए ।।८७॥ यदि इस कार्यके लिए कछुआ न मिले तो एक गंजे सिरवाले पीले रंगके शुद्ध ब्राह्मणको पवित्र जलमें मुख प्रमाण नीचे उतारे अर्थात् उसका शरीर मुख तक पानीमें डूबा रहे ऊपर केवल कछुआके आकारका मस्तक निकला रहे उस मस्तकपर प्रचण्ड अग्नि जलाकर आहुति देना चाहिए।॥८८-८९|| जो कुछ हो चुका है अथवा जो आगे होगा, जो अमृतत्वका स्वामी है अर्थात् देवपक्षीय है और जो अन्नजीवी है अर्थात् भूचारी है वह सब पुरुष ही है ॥९०। इस प्रकार जब सर्वत्र एक ही पुरुष है तब किसके द्वारा कौन मारा जाता है ? अर्थात् कोई किसीको नहीं मारता इसलिए यज्ञमें इच्छानुसार प्राणियोंकी हिंसा करो ॥९१।। यज्ञमें यज्ञ करनेवालेको उन जीवोंका मांस खाना चाहिए क्योंकि देवताके उद्देश्यसे निर्मित होनेके कारण वह मांस पवित्र माना जाता है ।।९२॥ इस प्रकार अत्यन्त पापपूर्ण कार्य दिखाता हुआ वह राक्षस पृथिवी तलपर प्राणियोंको यज्ञादि कार्योंमें निपुण करने लगा ॥९३।। तदनन्तर उसकी बातोंका विश्वास कर जो लोग सुखकी इच्छासे दीक्षित हो हिंसामयी यज्ञकी भूमिमें प्रवेश करते थे उन सबको वह लकड़ियोंके भारके समान मजबूत बाँधकर आकाशमें उड़ जाता था। उस समय उनके शरीर भयसे काँप उठते थे, उनकी आँखोंकी पुतलियाँ घूमने लगती थीं। उन्हें वह उलटा कर ऐसा झुकाता था कि उनकी जंघाएं पीठ तथा ग्रीवापर १. -मादाय म.। २. हविष्यजुह्वकाख्याय । ३. खल्वाटस्य म.। ४. मुखप्रमाणे । ५. मृतस्तस्य क., ज. । ६. किं किं नात्र क. । ७. कुरुत + अतो। ८. याजकेन म.। ९. श्रद्दधानस्ततो म. । १०. वीक्षिताः क.। ११. जवान् म.।
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