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पद्मपुराणे
इन्द्रोऽपि गजमारूढः कैलासगिरिसंनिभम् । शरं समुद्धरस्तूणादभीयाय दशाननम् ॥३१७॥ शरानाकर्णमाकृष्टान् चिक्षेप च यमद्विषि । महीधर इवाम्भोदः स्थूलधारामहाचयम् ||३१८ ॥ दशवक्त्रोऽपि तान्बाणैराच्छित्तान्तरवर्तिनः । ततस्तैर्गगनं चक्रे निखिलं मण्डपाकृतिम् ॥३१९॥ आच्छिद्यन्त शरा बाणैरभियन्त च भूरिशः । भीता इव रवेः पादाः क्वापि नष्टा निरन्वयाः || ३२० || अन्तरेऽस्मिन्नर्वेद्वार गतिर्निः शरगोचरम् । ननर्त कलह प्रेक्षा संभृतपुरुसंमदः || ३२१ ॥ असाध्यं प्रकृतास्त्राणां ततो ज्ञात्वा दशाननम् । निक्षिप्तमस्त्रमाग्नेयं नाथेन स्वर्गवासिनाम् ॥ ३२२॥ इन्धनत्वं गतं तस्य खमेव विततात्मनः । धनुरादौ तु किं शक्यं वक्तुं पुद्गलवस्तुनि ॥ ३२३॥ कीचकानामिवोदारो दद्यमाने वने ध्वनिः । ज्वालावलीकरालस्य संबभूवाशुशुक्षणेः || ३२४ ॥ ततस्तेनाकुलं दृष्ट्वा स्वबलं कैकसीसुतः । चिक्षेप क्षेपनिर्मुक्तमस्त्रं वरुणलक्षितम् ॥ ३२५ ॥ तेन क्षणसमुद्भूतमहाजीमूतराशिना । पर्वतस्थूलधारौघवर्षिणा रावशालिना ॥ ३२६ ॥ रावणस्येव कोपेन बिलीनेन विहायसा । क्षणात्तधूमलक्ष्मीस्त्रं विध्यापितमशेषतः || ३२७॥ सुरेन्द्रेण ततोsसर्जितामसास्त्रं समन्ततः । तेनान्धकारिता चक्रे ककुभां नभसा समम् || ३२८|| ततस्तेन दशास्यस्य विततं सकलं बलम् । स्वदेहमपि नापश्यत्कुतः शत्रोरनीकिनीम् ॥ ३२९ ॥ ततो निजबलं मूढं दृष्ट्वा रत्नश्रवः सुतः । प्रभास्त्रममुचत्कालै वस्तुयोजन कोविदः || ३३०॥
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क्षीरसमुद्रकी आवर्तके समान धवल रावणका छत्र देखकर देवोंकी सेना न जाने कहाँ नष्ट हो गयी ||३१६|| कैलास पर्वत के समान ऊँचे हाथीपर सवार हुआ इन्द्र भी तरकस से बाण निकालता हुआ रावण के सम्मुख आया ॥ ३१७॥ जिस प्रकार मेघ बड़ी मोटी धाराओंके समूहको किसी पर्वतपर छोड़ता है उसी प्रकार इन्द्र भी कान तक खींचे हुए बाण रावणके ऊपर छोड़ने लगा ||३१८ || इधर रावणने भी इन्द्रके उन बाणोंको बीचमें ही अपने बाणोंसे छेद डाला और अपने बाणोंसे समस्त आकाश में मण्डप - सा बना दिया || ३१९ ॥ इस प्रकार बाणोंके द्वारा बाण छेदे भेदे जाने लगे और सूर्य की किरणें इस तरह निर्मूल नष्ट हो गयीं मानो भयसे कहीं जा छिपी हों ॥ ३२० ॥ इसी समय युद्धके देखनेसे जिसे बहुत भारी हर्षं उत्पन्न हो रहा था ऐसा नारद जहाँ बाण नहीं पहुँच पाते थे वहाँ आनन्दविभोर हो नृत्य कर रहा था || ३२१ ||
अथानन्तर जब इन्द्रने देखा कि रावण सामान्य शस्त्रोंसे साध्य नहीं है तब उसने आग्नेय बाण चलाया || ३२२|| वह आग्नेय बाण इतना विशाल था कि स्वयं आकाश ही उसका ईंधन बन गया, धनुष आदि पौद्गलिक वस्तुओंके विषय में तो कहा ही क्या जा सकता है ? ॥ ३२३ ॥ जिस प्रकार बाँसोंके वनके जलनेपर विशाल शब्द होता है उसी प्रकार ज्वालाओंके समूहसे भयंकर दिखनेवाली आग्नेय बाणकी अग्निसे विशाल शब्द हो रहा था || ३२४ || तदनन्तर जब रावणने अपनी सेनाको आग्नेय बाणसे आकुल देखा तब उसने शीघ्र ही वरुण अस्त्र चलाया || ३२५ || उ बाणके प्रभावसे तत्क्षण ही महामेघों का समूह उत्पन्न हो गया । वह मेघसमूह पर्वत के समान बड़ी समूहकी वर्षा कर रहा था, गर्जनासे सुशोभित था और ऐसा जान पड़ता था मानो रावण के क्रोधसे आकाश ही पिघल गया हो। ऐसे मेघसमूहने इन्द्रके उस आग्नेय बाणको उसी क्षण सम्पूर्णं रूपसे बुझा दिया || ३२६-३२७|| तदनन्तर इन्द्रने तामस बाण छोड़ा जिससे समस्त दिशाओं और आकाशमें अन्धकार ही अन्धकार छा गया || ३२८ || उस बाणने रावणकी सेनाको इस प्रकार व्याप्त कर लिया कि वह अपना शरीर भी देखने में असमर्थ हो गयी फिर शत्रुकी सेनाको देखनेकी तो बात ही क्या थी ? || ३२९|| तब अवसरके योग्य वस्तुकी योजना १. तैर्बाणैख । तां म., ब. क. । २. राच्छिदन्तरवर्तिनः ख., ब, म. । राच्छादन्तर - क., 'छिदिर द्वैधीकरणे' इत्यस्य लङि आत्मनेपदे रूपम्, आ उपसर्गेण सहितम् । ३. भ्रान्ता इव म. । ४. नारदः । गोचरे ब., निस्सारगोचरं म. । ६. लक्ष्मांसं म । ७. काल वस्त्र - म. ।
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