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त्रयोदशं पर्व
सा 'चिल्ला चिपिटी व्याधिशतसंकुलविग्रहा । कथंचित्कर्मसंयोगालोकोच्छिष्टेन जीविता ||५७|| दुश्चेला दुर्भगा रूक्षा स्फुटिताङ्गा कुमूर्धजा । उत्त्रास्यमाना लोकेन लेभे सा शर्म न क्वचित् ॥५८॥ मुहूर्त परिवर्ज्यान्नं शरीरं च सुमानसा । जाता किंपुरुषस्य स्त्री क्षीरधारेति नामतः ||५९ || च्युता च रत्ननगरे धरणीगोमुखाख्ययोः । बिभ्रत्सहस्रभागाख्यां तनयोऽभूत्कुटुम्बिनोः || ६० ॥ लब्ध्वा परमसम्यक्त्वमणुव्रतसमन्वितः । पञ्चतां प्राप्य शुक्राह्वे जातो विबुधसत्तमः ||६१|| च्युतो महाविदेहेऽथ नगरे रत्नसंचये । गुणावल्यां मणेर्जातोऽमात्यात् सामन्तवर्द्धनः ।। ६२॥ निष्क्रान्तो विना साधं महाव्रतधरोऽभवत् । अतितीव्रतया नित्यं तस्वार्थंगतमानसः ||६३ || परोषहगणस्यालं षोढा निर्मलदर्शनः । कषायरहितः प्रेत्य परं ग्रैवेयकं गतः ॥६४॥ अहमिन्द्रः परं सौख्यं तत्र भुक्त्वा चिरं च्युतः । जातो हृदयसुन्दर्यां सहस्राराख्यखेचरात् ॥६५॥ पूर्वाभ्यासेन शक्रस्य सुखे संसक्तमानसः । इन्द्रस्त्वं खेचराधीशो नगरे रथनूपुरे ॥ ६६ ॥ सत्वमिन्द्र विषण्णः किं वृथैव परितप्यसे । विद्याधिको जितोऽस्मीति वहन्नात्मन्यनादरम् ॥६७॥ *निर्बुद्धे ! कोद्रवानुप्त्वा शालीन् प्रार्थयसे वृथा । कर्मणामुचितं तेषां जायते प्राणिनां फलम् ॥६८॥ क्षीणं पुराकृतं कर्म तव भोगस्य साधनम् । हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम् ॥ ६९ ॥
दुःखरूपी महावनमें भ्रमण करता हुआ एक जीव शिखापदनामा नगरमें मनुष्य गतिको प्राप्त हो दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ। वहाँ स्त्री पर्यायसे युक्त हो वह जीव 'कुलवान्ता' इस सार्थक नामको धारण करनेवाला हुआ || ५५ - ५६ ।। कुलवान्ताके नेत्र सदा कींचरसे युक्त रहते थे, उसकी नाक चपटी थी और उसका शरीर सैकड़ों बीमारियोंसे युक्त था । इतना होनेपर भी उसके भोजनका ठिकाना नहीं था । वह कर्मोदयके कारण जिस किसी तरह लोगोंका जूठन खाकर जीवित रहती थी || ५७ || उसके वस्त्र अत्यन्त मलिन थे, दौर्भाग्य उसका पीछा कर रहा था, सारा शरीर अत्यन्त रूक्ष था, हाथ-पैर आदि अंग फटे हुए थे और खोटे केश बिखरे हुए थे । वह जहाँ जाती थी वहीं लोग उसे तंग करते थे । इस तरह वह कहीं भी सुख नहीं प्राप्त कर सकती थी ॥ ५८ ॥ अन्त समय शुभमति हो उसने एक मुहूर्तके लिए अन्नका त्याग कर अनशन धारण किया जिससे शरीर त्याग कर किंपुरुषनामा देवकी क्षीरधारा नामकी स्त्री हुई || ५९ || वहाँसे च्युत होकर रत्नपुर नगरमें धरणी और गोमुख नामा दम्पती के सहस्रभाग नामक पुत्र हुआ ||६०|| वहाँ उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन प्राप्त कर धारी हुआ और अन्तमें मरकर शुक्र नामा स्वर्ग में उत्तम देव हुआ || ६१ || वहाँसे च्युत होकर महाविदेह क्षेत्रके रत्नसंचयनामा नगरमें मणिनामक मन्त्रीकी गुणावली नामक स्त्री सामन्तवर्धन नामक पुत्र हुआ || ६२|| सामन्तवर्धन अपने राजाके साथ विरक्त हो महाव्रतका धारक हुआ। वहाँ उसने अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया, तत्त्वार्थके चिन्तन में निरन्तर मन लगाया, अच्छी तरह परीषह सहन किये, निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और कषायोंपर विजय प्राप्त की । अन्त समय मरकर वह ग्रैवेयक गया सो अहमिद्र होकर चिरकाल तक वहाँके सुख भोगता रहा । अन्त समय में वहाँसे च्युत हो रथनूपुर नगरमें सहस्रार नामक विद्याधरकी हृदयसुन्दरी रानीसे इन्द्र नामको धारण करनेवाला तू विद्याधरोंका राजा हुआ है । पूर्व अभ्यासके कारण ही तेरा मन इन्द्र सुखमें लीन रहा है ।। ६३-६६ || सो हे इन्द्र ! मैं विद्याओंसे युक्त होता हुआ भी शत्रुसे हार गया हूँ, इस प्रकार अपने आपके विषयमें अनादरको धारण करता हुआ तू विषादयुक्त हो व्यर्थं ही क्यों सन्ताप कर रहा है ||६७|| अरे निर्बुद्धि ! तू कोदों बोकर धानको व्यर्थ ही इच्छा करता है । प्राणियों को सदा कर्मोंके अनुकूल ही फल प्राप्त होता है ||६८|| तुम्हारे भोगोपभोगका साधन
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१. क्लिन्ने चक्षुषी यस्याः सा चिल्ला 'क्लिन्नस्य चिल् पिल् लश्वास्य चक्षुषी' इति वार्तिकम् । २. नता नासिका यस्याः सा चिपिटा 'इनच् पिच्चिक चि च' इति सूत्रम् । ३. अहमिन्द्र परं म । ४. निर्बुद्धि - म. ।
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