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पद्मपुराणे अथास्य मानसं चिन्ता समारूढेयमुत्कटा । भोगानुरक्तचित्तस्य व्याकुलत्वमुपेयुषः ॥३५९॥ स्वभावेनैव मे शुद्धमन्धो गन्धमनोहरम् । स्वादु वृष्यं परित्यक्तमांसादिमलसंगमम् ॥३६०॥ स्थूलप्राणिवधादिभ्यो विरतिं गृहवासिनाम् । एकामपि न शक्तोऽहं कत कान्यत्र संकथा ॥३६॥ मत्तेमसदृशं चेतस्तद्धावस्सर्ववस्तुषु । हस्तेनेवात्ममावेन धत्तुं न प्रभवाम्यहम् ॥३६२॥ हुताशनशिखा पेया बद्धव्यो वायुरंशुके । उत्क्षेप्तव्यो धराधीशो निर्ग्रन्थत्वमभीप्सता ॥३६३॥ शूरोऽपि न समर्थोऽहं सेवितं यत्तपोव्रतम् । अहो चित्रमिदं तदये धारयन्ति नरोत्तमाः ॥३६४॥ किमेकमाश्रयाम्येतं नियमं शोमनामपि । अवष्टम्भामि नानिच्छामन्ययोषां बलादिभिः ॥३६५॥ अथवा न ननु क्षुद्रे कुतः शक्तिरियं मयि । स्वस्याप्यस्य न शक्नोमि वोढुं चित्तस्य निश्चयम् ॥३६६।। यद्वा लोकत्रये नासौ विद्यते प्रमदोत्तमा । दृष्ट्वा मां विकलत्वं या न बजेन्मन्मथार्दिता ॥३६७॥ का वा नरान्तराश्लेषदूषितप्रमदातनौ । ओष्टचर्मदधानायां परदन्तकृतव्रणम् ॥३६८॥ दुर्गन्धायां स्वभावेन वर्णोराश 1 नरस्य दधतश्चित्तं मानसंस्कारभाजनम् ॥३६९॥ अवधार्यतिभावेन प्रणम्यानन्तविक्रमम् । देवासुरसमक्षं स प्रकाशमिदमभ्यधात् ॥३७०॥ भगवन्न मया नारी परस्येच्छाविवर्जिता । गृहीतव्येति नियमो ममायं कृतनिश्चयः ॥३७१।।
चतुःशरणमाश्रित्य भानुकर्णोऽपि कर्णवान् । इमं नियममातस्थे मन्दरस्थिरमानसः ॥३७२।। प्रविष्ट हुए पुरुषका भी चित्त 'यह नियम लूं या यह नियम लूं' इस तरह परम आकुलताको प्राप्त हो घूमता रहता है ॥३५८॥
अथानन्तर जिसका चित्त सदा भोगोंमें अनुरक्त रहता था और इसी कारण जो व्याकुलताको प्राप्त हो रहा था ऐसे रावणके मनमें यह भारी चिन्ता उत्पन्न हुई कि ।।३५९।। मेरा भोजन तो स्वभावसे ही शुद्ध है, सुगन्धित है, स्वादिष्ट है, गरिष्ठ है और मांसादिके संसर्गसे रहित है ।।३६०।। स्थूल हिंसा त्याग आदि जो गृहस्थोंके व्रत हैं उनमेंसे मैं एक भी प्रत धारण करने में समर्थ नहीं हूँ फिर अन्य व्रतोंकी चर्चा ही क्या है ? ॥३६१।। मेरा मन मदोन्मत्त हाथीके समान सर्व वस्तुओंमें दौड़ता रहता है सो उसे मैं हाथके समान अपनी भावनासे रोकने में समर्थ नहीं हूँ ॥३६२॥ जो निर्ग्रन्थ व्रत धारण करना चाहता है वह मानो अग्निकी शिखाको पीना चाहता है, वायुको वस्त्रमें बाँधना चाहता है, और सुमेरुको उठाना चाहता है ।।३६३।। बड़ा आश्चर्य है कि मैं शूर वीर होकर भी जिस तप एवं व्रतको धारण करने में समर्थ नहीं हूँ उसी तप एवं व्रतको अन्य पुरुष धारण कर लेते हैं। यथार्थमें वे ही पुरुषोत्तम हैं ॥३६४॥ रावण सोचता है कि क्या मैं एक यह नियम ले लूं कि परस्त्री कितनी ही सुन्दर क्यों न हो यदि वह मुझे नहीं चाहेगी तो मैं उसे बलपूर्वक नहीं छेड़ें गा ॥३६५।। अथवा मुझ क्षुद्र व्यक्तिमें इतनी शक्ति कहाँसे आई ? मैं अपने ही चित्तका निश्चय वहन करने में समर्थ नहीं हूँ॥३६६॥ अथवा तीनों लोकोंमें ऐसी उत्तम स्त्री नहीं है जो मुझे देखकर कामसे पीड़ित होती हुई विकलताको प्राप्त न हो जाय?॥३६७।। अथवा जो मनुष्य मान और संस्कारके पात्र स्वरूप मनको धारण करता है उसे अन्य मनुष्यके संसर्गसे दूषित स्त्रीके उस शरीरमें धैर्यसन्तोष हो ही कैसे सकता है कि जो अन्य पुरुषके दाँतों द्वारा किये हुए घावसे युक्त ओठको धारण
है. स्वभावसे ही दर्गन्धित है और मलकी राशि स्वरूप है॥३६८-३६९।।, ऐसा विचारकर रावणने पहले तो अनन्तबल केवलीको भाव पूर्वक नमस्कार किया। फिर देवों और असुरोंके समक्ष स्पष्ट रूपसे यह कहा कि ॥३७०॥ हे भगवन् ! 'जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा' मैंने यह दृढ़ नियम लिया है ।।३७१॥ जो समस्त बातोंको सुन रहा था तथा जिसका मन सुमेरुके समान स्थिर था ऐसे भानुकर्ण ( कुम्भकर्ण ) ने भी अरहन्त सिद्ध साधु और जिन धर्म इन १. भोजनम् । २. संयतव्रतम् ज. । ३. ननु न म. । नन न क., ख. । ४. भवेद्रतिः म. ।
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