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पद्मपुराणे
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कदा नु तामहं कान्तां वीक्षे स्वाङ्क निवेशिताम् । स्पृशन् कमलतुल्यानि गात्राणि कृतसंकथः || १०८ || श्रुत्वा तावदयं जाता ममावस्थातिदुःखदा । आलोक्य तां तु नो पश्यन् भवेयं पञ्चतां गतः ॥ १०९ ॥ अहो महदिदं चित्रं मनोज्ञापि सखी मम । यदसौ दुःखमारस्य कारणत्वमुपागता ॥११०॥ अयि भद्रे कथं यस्मिन्नुष्यते हृदये त्वया । दग्धुं तदेव सक्तासि पण्डिते दुःखवह्निना ॥ १११ ॥ मृदुचित्ताः स्वभावेन भवन्ति किल योषितः । मद्दुःखदानतो जातं विपरीतमिदं तव ॥ ११२ ॥ अनङ्गः सन् व्यथामेतामनङ्ग त्वं करोषि मे । यदि नाम भवेत्साङ्गस्ततः कष्टतमं भवेत् ॥ ११३ ॥ तं न चास्ति मे देहे वेदना च गरीयसी । तिष्ठन्नेकत्र चोदेशे भ्रमामि कापि संततम् ।।११४ ॥ दिवसानां त्रयं नैतन्मम क्षेमेण गच्छति । यदि तां विषयीभावमानयामि न चक्षुषः ॥ ११५ ॥ अतस्तदर्शनोपायः कतरो मे भविष्यति । यस्याधिगमतश्चित्तं प्रशान्तिमधियास्यति ॥ ११६ ॥ अथवा सर्वकार्येषु साधनीयेषु विष्टपे । मित्रं परममुज्झित्वा कारणं नान्यदीक्ष्यते ॥ ११७ ॥ इति ध्यात्वा स्थितं पार्श्वे छायाबिम्बमिवानुगम् । विक्रियातः समुत्पन्नं शरीरं स्वमिवापरम् ॥११८॥ नाम्ना प्रहसितं मित्रं सर्वविश्रम्भभाजनम् । मन्दगद्गदया वाचा जगाद पवनञ्जयः ||११९|| जानास्येव ममाकूतमतः किं ते निवेद्यते । केवलं मुखरत्वं मे करोत्यत्यन्तदुःखिताम् ॥१२०॥ सखे कस्य वदान्यस्य दुःखमेतन्निवेद्यते । मुक्त्वा त्वां विदिताशेषजगत्त्रयविचेष्टितम् ॥ १२१ ॥ उतारकर अलग कर दिये थे ऐसा पवनंजय निरन्तर स्त्रीका ही ध्यान करता रहता था। परिवारके लोग बड़ी चिन्तासे उसकी इस दशाको देखते थे || १०७ || वह सोचा करता था कि मैं उस कान्ताको अपनी गोद में बैठी कब देखूंगा और उसके कमलतुल्य शरीरका स्पर्श करता हुआ उसके साथ कब वार्तालाप करूँगा || १०८ || उसकी चर्चा सुनकर तो हमारी यह अत्यन्त दुःख देनेवाली अवस्था हो गयी है फिर साक्षात् देखकर तो न जाने क्या होगा ? उसे देखकर तो अवश्य ही मृत्युको प्राप्त हो जाऊँगा || १०९ || अहो ! यह बड़ा आश्चर्य है कि वह मेरी सखी मनोहर होकर भी मेरे लिए दुःखका कारण बन रही है | ११०|| अरी भली आदमिन ? तू तो बड़ी पण्डिता है फिर जिस हृदय में निवास कर रही है उसे ही दुःखरूपी अग्निसे जलानेके लिए तैयार क्यों बैठी है ||१११|| स्त्रियाँ स्वभावसे ही कोमलचित्त होती हैं पर मेरे लिए दुःख देनेके कारण तुम्हारे विषय में यह बात विपरीत मालूम होती है ||११२ || हे अनंग ! जब तुम शरीररहित होकर भी इतनी पीड़ा उत्पन्न कर सकते हो तब फिर यदि शरीरसहित होते तो बड़ा ही कष्ट होता ||११३ || मेरे शरीर में यद्यपि घाव नहीं है तो भी पीड़ा अत्यधिक हो रही है और यद्यपि एक स्थानपर बैठा हूँ तो भी निरन्तर कहीं घूमता रहता हूँ ||११४ || यदि में उसे नेत्रोंका विषय नहीं बनाता हूँ - उसे देखता नहीं हूँ तो मेरे ये तीन दिन कुशलतापूर्वक नहीं बीत सकेंगे ॥ ११५ ॥ इसलिए उसके दर्शनका उपाय क्या हो सकता है जिसे प्राप्त कर चित्त शान्ति प्राप्त करेगा ॥ ११६ ॥ अथवा इस संसार में करने योग्य समस्त कार्योंमें परममित्रको छोड़कर और दूसरा कारण नहीं दिखाई देता | ११७ | ऐसा विचारकर पवनंजयने पास ही बैठे हुए प्रहसित नामक मित्रसे धीमी एवं गद्गद वाणी में कहा । वह मित्र छाया के समान सदा पवनंजयके साथ रहता था । विक्रियासे उत्पन्न हुए उन्हीं के दूसरे शरीर के समान जान पड़ता था और सर्व विश्वासका
पात्र था ।।११८ - ११९ ॥
उसने कहा कि मित्र ! तुम मेरा अभिप्राय जानते ही हो अतः तुमसे क्या कहा जाये ? मेरी मुखरता केवल तुम्हें दुःखी ही करेगी ॥ १२० ॥ हे सखे ! तीनों लोकोंकी समस्त चेष्टाओंको १. स्पृशे कमल म. । २. नोऽपश्यद्भवेयं म । ३. निवास: क्रियते । यस्मिन् तुष्यते म । ४. दग्धं म । ५. शक्तासि म । ६. कृतं न चात्र म । ७. भ्रमसि म ।
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