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पञ्चदशं पर्व
नूनमस्याः प्रियोऽसौ ना कन्याया येन पार्श्वगाम् । मज्जुगुप्सनसंसक्तां न मनागप्यवीवदत् ॥१७६॥ ततः समागतौ ज्ञातौ न केनचिदिनौ भृशम् । स्वैरं निःसृत्य निर्व्यहाद् गतौ वसतिमात्मनः ॥१७७॥ ततः परममापन्नो विरागं पवनंजयः । इति चिन्तनमारेभे प्रशान्तहृदयो भृशम् ॥१७८॥ संदेहविषमावर्ता दुर्भावग्रहसंकुला । दूरतः परिहर्तव्या पररक्ताङ्गनापगा ॥१७९॥ कुमावगहनात्यन्तं हृषीकव्यालजालिनी । बुधेन नार्यरण्यानी सेवनीया न जातुचित् ॥१८॥ किं राजसेवनं शत्रुसमाश्रयसमागमम् । इलथं मित्रे स्त्रियं चान्यसतां प्राप्य कुतः सुखम् ॥१८॥ इष्टान् बन्धून सुतान् दारान् बुधा मुञ्चन्त्यसत्कृताः । पराभवजलाध्माताः क्षुद्राः नश्यन्ति तत्र तु ॥१८२॥ मदिरारागिणं वैद्यं द्विपं शिक्षाविवर्जितम् । अहेतुवैरिणं क्रूरं धर्म हिंसनसंगतम् ॥१८३॥ मूर्खगोष्ठी कुमर्यादं देशं चण्डं शिशुं नृपम् । वनितां च परासक्तां सूरि(रेण वर्जयेत् ।। १८४॥ एवं चिन्तयतस्तस्य कन्याग्रीतिरिवागता । क्षयं विभावरी तूर्यमाहतं च प्रबोधकम् ॥१८५॥ ततः संध्याप्रकाशन कौशिकीयाँ दिगावता । पवनंजयनिर्मुक्तरागेणेव निरन्तरम् ॥१८६॥ उदियाय च तिग्मांशुः स्त्रीकोपादिव लोहितम् । दधानस्तरलं बिम्बं जगच्चेष्टितकारणम् ॥१८७॥ ततो वहन्दिरागेण नितान्तमलसां तनुम् । ऊचे प्रहसितं जायाविमुखः पवनंजयः ॥१८८॥ सखेऽत्र न समीपेऽपि युज्यतेऽवस्थितिम । तत्सक्तपवनासंगो माभूदिति ततः शृणु ॥१८९॥
निश्चित ही वह विद्युत्प्रभ इस कन्याके लिए प्यारा होगा तभी तो पास बैठकर मेरी निन्दा करने. वाली इस स्त्रीसे उसने कुछ नहीं कहा ।।१७६।। तदनन्तर जिनके आनेका किसीको कुछ भी पता नहीं था ऐसे दोनों मित्र झरोखेसे बाहर निकलकर अपने डेरेमें चले गये ।।१७७।।
तदनन्तर जिसका हृदय अत्यन्त शान्त था ऐसा पवनंजय परम वैराग्यको प्राप्त होकर इस प्रकार विचार करने लगा कि ॥१७८॥ जिसमें सन्देहरूपी विषम भँवरें उठ रही हैं और जो दुष्टभावरूपी मगरमच्छोंसे भरी हुई हैं ऐसी पर-पुरुषासक्त स्त्रीरूपी नदीका दूरसे ही परित्याग करना चाहिए ।।१७९|| जो खोटे भावोंसे अत्यन्त सघन है तथा जिसमें इन्द्रियरूपी दुष्ट जीवोंका समूह व्याप्त है ऐसी यह स्त्री एक बड़ी अटवीके समान है, विद्वज्जनोंको कभी इसकी सेवा नहीं करनी चाहिए ॥१८०।। जिसका अपने शत्रुके साथ सम्पर्क है ऐसे राजाकी सेवा करनेसे क्या लाभ है? इसी प्रकार शिथिल मित्र और परपरुषासक्त स्त्रीको पाकर सख कहाँसे हो सकता है? ||१८१।। जो विज्ञ पुरुष हैं वे अनादृत होनेपर इष्ट-मित्रों, बन्धुजनों, पुत्रों और स्त्रियों को छोड़ देते हैं पर जो क्षुद्र मनुष्य हैं वे पराभवरूपी जलमें डूबकर वहीं नष्ट हो जाते हैं ॥१८२॥ मदिरापानमें राग रखनेवाला वैद्य, शिक्षा रहित हाथी, अहेतुक वैरी, हिंसापूर्ण दुष्ट धर्म, मूल्की गोष्ठी, मर्यादाहीन देश, क्रोधी तथा बालक राजा और परपुरुषासक्त स्त्री-बुद्धिमान् मनुष्य इन सबको दूरसे ही छोड़ देवे ।।१८३-१८४॥ ऐसा विचार करते हुए पवनंजयकी रात्रि कन्याकी प्रोतिके समान क्षयको प्राप्त हो गयी और जगानेवाले बाजे बज उठे ॥१८५।।
तदनन्तर सन्ध्याकी लालीसे पूर्व दिशा आच्छादित हो गयो सो ऐसो जान पड़ती थी मानो पवनंजयके द्वारा छोड़े हुए रागसे ही निरन्तर आच्छादित हो गयी थी ।।१८६।। और जो लोके क्रोधके कारण ही मानो लाल-लाल दिख रहा था तथा जो जगत्की चेष्टाओंका कारण था ऐसे चंचल बिम्बको धारण करता हुआ सूर्य उदित हुआ ॥१८७|| तदनन्तर विरागके कारण अत्यन्त अलस शरीरको धारण करता स्त्रीविमुख पवनंजय प्रहसित मित्रसे बोला कि ॥१८८।। हे मित्र ! उससे सम्पर्क रखनेवाली वायुका स्पर्श न हो जाये इसलिए यहाँ समीपमें भी मेरा रहना उचित १. पुरुषः । २. निर्मूहाद् क., ख., ग., म., ज. । गवाक्षात् । ३. दृष्टा म. । ४. ऐन्द्री, पूर्वदिशेत्यर्थः ।
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