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पद्मपुराणे उपविष्टौ च विश्रब्धौ तौ मनोज्ञशिलातले । परस्परं शरीरादिकुशलं पर्यपृच्छताम् ॥८॥ उवाचेति महेन्द्रोऽथ सखे किं कुशलं मम । कन्यानुरूपसंबन्धचिन्ताव्याकुलितात्मनः ॥८२॥ अस्ति मे दुहिता योग्या वरं प्राप्तुं मनोहरा । कस्मै तां प्रददामीति मम भ्राम्यति मानसम् ॥८३॥ रावणो बहुपत्नीकस्तस्सुतौ 'व्रजतो रुषम् । दानेनान्यतरस्यातो न तेषु रुचिरस्ति मे ॥८॥ पुरे हेमपुराभिख्ये तनयः कनकयुतेः । विद्युत्प्रभो दिनैरल्पैनिर्वाणं प्रतिपत्स्यते ॥४५॥ मयेयं विदिता वार्ता प्रकटा सर्वविष्टपे । केनापि कथितं नूनं संज्ञानेनेति योगिना ॥८६॥ मन्त्रिमण्डलयुक्तस्य ततो मम विनिश्चितः। पुत्रस्तव वरत्वेन निर्वाच्यः पवनञ्जयः ॥८॥ मनोरथोऽयमायाता त्वया' प्रह्लाद पूरितः । समयेनास्मि संजातः क्षणेन परिनिर्वृतः ॥८॥ ततोऽवोचदलं प्रीतः प्रह्लादो लब्धवान्छितः । चिन्ता ममापि पुत्रस्य द्वितीयान्वेषणं प्रति ८९॥ ततोऽहमपि वाक्येन स्वदीयेनामुना सुहृत् । शब्दगोचरतायुक्तां परिप्राप्तः सुखासिकाम् ॥१०॥ सरसो मानसाख्यस्य तटेऽथात्यन्तचारुणि । गुरुभ्यां वान्छितं कतु तयोववाहमङ्गलम् ॥९॥ स्थिते तत्रोभयोः सेने क्षणकल्पितसंश्रये । गजवाजिपदातीनामनुकूलरवाकुले ॥१२॥ दिनेषु त्रिषु यातेषु तयोः सांवत्सरा जगुः । कल्याणदिवसं ज्ञातनिखिलज्योतिरीहिताः ॥१३॥ श्रुत्वा परिजनादेत सर्वावयवसुन्दरीम् । दिवसानां त्रयं सेहे न 'प्राहादिः प्रतीक्षितुम् ॥९॥
भरे महेन्द्रने भी सहसा उठकर उसकी अगवानी की और आनन्दके कारण आलिंगन करते हुए प्रह्लादका आलिंगन किया ||८०।। तदनन्तर दोनों ही राजा निश्चित होकर मनोहर शिलातलपर बैठे और परस्पर शरीरादिकी कुशलता पूछने लगे ॥८॥
अथानन्तर राजा महेन्द्रने कहा कि हे मित्र! मेरा मन तो निरन्तर कन्याके अनुरूप सम्बन्ध ढूँढ़नेकी चिन्तासे व्याकुल रहता है अतः कुशलता कैसे हो सकती है ? ॥८२।। मेरी एक कन्या है जो वर प्राप्त करने योग्य अवस्था में है, किसके लिए उसे ढूँ इसी चिन्तामें मन घमता रहता है ॥८३।। रावण बहुपत्नीक है अर्थात् अनेक पत्नियोंका स्वामी है और इसके पुत्र इन्द्रजित् तथा मेघनाद किसी एकके लिए देनेसे शेष रोषको प्राप्त होते हैं अतः उन तीनोंमें मेरी रुचि नहीं है ।।८४॥ हेमपुर नगरमें राजा कनकद्युतिके विद्युत्प्रभ नामका पुत्र है सो वह थोड़े ही दिनोंमें निर्वाण प्राप्त करेगा ॥८५॥ यह बात किसी सम्यग्ज्ञानी मुनिने कही है सो समस्त लोकमें प्रसिद्ध है और परम्परावश मुझे भी विदित हुई है ।।८६।। अतः मन्त्रिमण्डलके साथ बैठकर मैंने निश्चय किया है कि आपके पुत्र पवनंजयको ही कन्याका वर चुनना चाहिए ।।८७॥ सो हे प्रह्लाद ! यहाँ पधारकर तुमने मेरे इस मनोरथको पूर्ण किया है। मैं तुम्हें देखकर क्षण-भरमें ही सन्तुष्ट हो गया हूँ ॥८॥ तदनन्तर जिसे अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति हो रही है ऐसे प्रह्लादने बड़ी प्रसन्नतासे कहा कि पुत्रके अनुरूप वधू ढूंढ़नेकी मुझे भी चिन्ता है ।।८९॥ सो हे मित्र! आपके इस वचनसे मैं जो शब्दोंसे न कही जाये ऐसी निश्चिन्तताको प्राप्त हुआ हूँ ॥९०॥ अथानन्तर अंजना और पवनंजयके पिताने वहीं मानुषोत्तर पर्वतके अत्यन्त सुन्दर तटपर उनका विवाह-मंगल करनेकी इच्छा की ॥११॥ इसलिए क्षण-भरमें ही जिनके डेरे-तम्बू तैयार हो गये थे तथा जो हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकोंके अनुकूल शब्दोंसे व्याप्त था ऐसी उन दोनोंकी सेनाएं वहीं ठहर गयीं ।।९२॥ समस्त ज्योतिषियोंकी गतिविधिको जाननेवाले ज्योतिषियोंने तीन दिन बीतनेके बाद विवाहके योग्य दिन बतलाया था ॥९६॥ पवनंजयने परिजनोंके मुखसे सुन रखा था कि अंजनासुन्दरी सर्वांगसुन्दरी है इसलिए उसे देखनेके लिए वह तीन दिनका व्यवधान सहन नहीं १. व्रजती म. । २. मायाता ज., ब.। मायातस्त्वया म., क., ख.। ३. भार्यान्वेषणम् । ४. मुक्ता म. । ५. पितृभ्याम् । ६. पवनंजयः ।
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