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पञ्चदशं पव
सुरविद्याधरैः सर्वैरेकीभूयापि यत्नतः । अजय्यस्त्रिजगच्छक्तिसंग्रहेणेवे निर्मितः ॥ ४० ॥ कन्येयं दीयतां तस्मै भवतां यदि संमतम् । चिरादुत्पद्यतां योगी दम्पत्योरनुरूपयोः ॥४१॥ उत्तमाङ्गं ततो धूवा' संमील्य नयने चिरम् । जगाद वचनं मन्त्री नाम्ना संदेहपारगः ॥ ४२ ॥ भव्योऽयं पूर्वजा याता मम क्वेति विचिन्तयत् । संसारप्रकृतिं बुद्ध्वा निर्वेदं परमेष्यति ॥४३॥ विषयेष्वप्रसक्तात्मा वर्षेऽष्टादशसंख्यैके । मक्व भोगमहालानं गृहितां परिहास्यति ॥४४॥ बहिरन्तश्च स सङ्गं परित्यज्य महामनाः । केवलज्ञानमुत्पाद्य किल निर्वाणमेष्यति ॥४५॥ वियुक्तानेन बालेयं भ्रष्टशोभा मविष्यति । शर्वरीव शशाङ्केन जगदालोककारिणा ॥४६॥ ̈ शृणुतातोऽस्ति नगरमादित्यपुरसंज्ञकम् । पुरन्दरपुराकारं रत्नैरादित्य भासुरम् ॥४७॥ नभश्चरशशाङ्कोऽत्र प्रह्लादो नाम भोगवान् । तस्य केतुमती पत्नी केतु मनसवासिनः ॥४८॥ तयोर्विक्रमसंभारो रूपशीलो गुणाम्बुधिः । पवनञ्जयनामास्ति तनयो नयमण्डनः ॥ ४९ ॥ शुभलक्षणसंच्छन्नविशालोत्तुङ्गविग्रहः । कलानां निलयो वीरो दूरीभूतदुरीहितः ||५०|| संवत्सरशतेनापि यस्य वक्तुं न शक्यते । गुणग्रामोऽखिल:' ' प्राप्तसमस्तजनचेतसः ॥ ५१ ॥ अथवा वचनज्ञानमस्पष्टमुपजायते । अतो गत्वैव वोक्षध्वमिमं देवसमद्युतिम् ||५२||
उसने समस्त लोकको अनुरंजित कर रखा है || ३९ || समस्त देव - विद्याधर एक होकर भी उसे प्रयत्नपूर्वक नहीं जीत सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मानो वह तीनों लोकोंकी शक्ति इकट्ठी कर ही बनाया गया है ||४०|| यदि आपकी सम्मति हो तो यह कन्या उसे दो जावे जिससे योग्य दम्पतियों का चिरकालके लिए संयोग उत्पन्न हो सके ||४१ ||
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तदनन्तर सन्देहपारग नामका मन्त्री सिर हिलाकर तथा चिरकाल तक नेत्र बन्द कर निम्नांकित वचन बोला ||४२ || उसने कहा कि यह निकट भव्य है तथा निरन्तर ऐसा विचार करता रहता है कि मेरे पूर्वज कहाँ गये ? सो इससे जान पड़ता है कि यह संसारका स्वभाव जानकर परम वैराग्यको प्राप्त हो जायेगा ||४३|| जिसकी आत्मा विषयोंमें अनासक्त रहती है ऐसा यह कुमार अठारह वर्षको अवस्थामें भोगरूपी महाआलानका भंग कर गृहस्थ अवस्था छोड़ देगा ||४४|| वह महामना बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्याग कर तथा केवलज्ञान उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होगा || ४५ || सो जिस प्रकार जगत्को प्रकाशित करनेवाले चन्द्रमासे रहित होनेपर रात्रि शोभाहीन हो जाती है उसी प्रकार इससे वियुक्त होनेपर यह बाला शोभाहीन हो जावेगी ||४६|| इसलिए मेरी बात सुनो, इन्द्रके नगरके समान सुन्दर तथा रत्नोंसे सूर्यके समान देदीप्यमान एक आदित्यपुर नामका नगर है इसमें प्रह्लाद नामका राजा रहता है जो भोगोंसे युक्त है तथा विद्याधरों के बीच चन्द्रमाके समान जान पड़ता है । प्रह्लादकी रानी केतुमती है जो कि सौन्दर्यके कारण कामदेवकी पताकाके समान सुशोभित है || ४७-४८ ॥ उन दोनोंके एक पवनंजय नामका पुत्र है जो अत्यन्त पराक्रमी, रूपवान् गुणोंका सागर तथा नयरूपी आभूषणोंसे विभूषित है ||४९|| उसका अतिशय ऊँचा शरीर अनेक शुभ लक्षणोंसे व्याप्त है, वह कलाओंका घर, शूरवीर तथा खोटी चेष्टाओं से दूर रहनेवाला है ||५०॥ वह सब लोगोंके चित्तमें बसा हुआ है तथा सौ वर्षमें भी उसके समस्त गुणों का समूह कहा नहीं जा सकता है ॥५१॥ अथवा वचनोंके द्वारा जो किसीका ज्ञान कराया जाता है वह अस्पष्ट ही रहता है इसलिए देवतुल्य कान्तिको धारण करनेवाले इस
१ संग्रहेण विनिर्मितः म । २. कम्पयित्वा । ३. संज्ञके म । ४. भुक्त्वा म । ५. महालाभं ज., म. । महालीनां ख. । ६. गृहे तां ख. । ७. शृणुत + अतः + अस्ति । ८. कामस्य । ९. विशालो तुङ्ग म. । १०. खिलप्राप्तसमस्त म, क., ब. ।
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