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पञ्चवर्श पर्व
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तत आरभ्य संप्राप महेन्द्राच्या रसाधरः । महेन्द्रनगरं तच्च पुरं तत्र प्रकीर्तितम् ॥१४॥ नायर्या हृदयवेगायामजायन्त महेन्द्रतः । गुणवन्तः शतं पुत्रा नामतोऽरिंदमादयः ॥१५॥ उदपाद्यनुजा तेषां कीर्तिताअनसुन्दरी । त्रैलोक्यसुन्दरीरूपसंदोहेनैव निर्मिता ॥१६॥ नीलनीरजनिर्मासा प्रशस्तकरपल्लवा । पनगर्भाभचरणा कुम्भिकुम्भनिभस्तनी ॥१७॥ तनुमध्या पृथुश्रोणी सुजानूरू: 'सुलक्षणा । प्रफुल्लमालतीमालामृदुबाहुलतायुगा ॥१८॥ कर्णान्तसंगते कान्तिकृतपुळे सुदूरगे। इष ते कामदेवस्य ननु तस्या विलोचने ॥१९॥ गन्धर्वादिकलामिज्ञा साक्षादिव सरस्वती। लक्ष्मीरिव च रूपेण सा बभूव गुणान्विता ॥२०॥ अन्यदा कन्दुकेनासौ रममाणा सरेचकम् । जनकनेक्षिताभ्यग्रयौवनाञ्चितविग्रहा ॥२१॥ सुलोचनासुताभर्तृवरचिन्तातिदुःखिनः । अकम्पननृपस्येव सद्गुणार्पितचेतसः ॥२२॥ तद्वरान्वेषणे तस्य ततः सकामवन्मतिः । अत्यन्तव्याकुलप्रायः कन्यादुःखं मनस्विनाम् ॥२३॥ गमिष्यति पति इलाध्यं रमयिष्यति तं चिरम् । भविष्यत्युज्झिता दोषैरतिचिन्ता नृणां सुता ॥२४॥ आहूय सुहृदः सर्वास्ततो विज्ञानभूषणान् । राजा वरविनिश्चित्यै रहोगेहमशिश्रियत् ॥२५॥
जगाद मन्त्रिणश्चैव महो निखिलवेदिनः । सूरयो मम कन्याया वदत प्रवरं वरम् ॥२६॥ रहने लगा था तभीसे उस पर्वतका 'महेन्द्रगिरि' नाम पड़ गया था और उस नगरका महेन्द्रनगर नाम प्रसिद्ध हो गया था ॥१३-१४|| राजा महेन्द्रको हृदयवेगा रानीमें अरिदम आदि सौ गुणवान पुत्र उत्पन्न हए ॥१५॥ उनके अंजनासुन्दरी नामसे प्रसिद्ध छोटी बहन उत्पन्न हई। वह ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन लोककी सुन्दर स्त्रियोंका रूप इकट्ठा कर उसके समूहसे ही उसकी रचना हुई थी ॥१६||
उसकी प्रभा नील कमलके समान सुन्दर थी, हस्तरूप पल्लव अत्यन्त प्रशस्त थे, चरण कमलके भीतरी भागके समान थे, स्तन हथीके गण्डस्थलके तुल्य थे ॥१७॥ उसकी कमर पतली थी, नितम्ब स्थूल थे, जंघाएँ उत्तम घुटनोंसे युक्त थीं, उसके शरीरमें अनेक शुभ लक्षण थे, उसकी दोनों भुजलताएं प्रफुल्ल मालतीको मालाके समान कोमल थीं ॥१८॥ कानों तक लम्बे एवं कान्तिरूपी मूठसे युक्त उसके दोनों नेत्र ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवके सुदूरगामी बाण ही हों ॥१९॥ वह गन्धवं आदि कलाओंको जाननेवाली थी इसलिए साक्षात् सरस्वतीके समान जान पड़ती थी और रूपसे लक्ष्मीके तुल्य लगती थी॥२०॥ इस प्रकार अनेक गुणोंसे सहित वह कन्या किसी समय गोलाकार भ्रमण करती हुई गेंद खेल रही थी कि पिताकी उसपर दृष्टि पड़ी। पिताने देखा कि कन्याका शरीर नव-यौवनसे सुशोभित हो रहा है। उसे देख जिस प्रकार उत्तम गुणोंमें चित्त लगानेवाले राजा अकम्पनको अपनी पुत्री सुलोचनाके योग्य वर ढूँढ़नेकी चिन्ता हुई थी और उससे वह अत्यन्त दुःखी हुआ था उसी प्रकार राजा महेन्द्रको भी पुत्रीके योग्य वर ढूँढ़नेकी चिन्ता हुई सो ठीक ही है क्योंकि स्वाभिमानी मनुष्योंको कन्याका दुःख अत्यन्त व्याकुलता उत्पन्न करनेवाला होता है ॥२१-२३॥ कन्याके पिताको सदा यह चिन्ता लगी रहती है कि कन्या उत्तम पतिको प्राप्त होगी या नहीं, यह उसे चिरकाल तक रमण करा सकेगी या नहीं और निर्दोष रह सकेगी या नहीं। यथार्थमें पुत्री मनुष्यके लिए बड़ी चिन्ता है ॥२४॥
अथानन्तर राजा महेन्द्र ज्ञानरूपी अलंकारसे अलंकृत समस्त मित्रजनोंको बुलाकर वरका निश्चय करनेके लिए एकान्त घरमें गये ॥२५॥ वहां उन्होंने मन्त्रियोंसे कहा कि अहो मन्त्रिजनो! आप लोग सब कुछ जानते हैं तथा विद्वान् हैं अतः मेरी कन्याके योग्य उत्तम वर बतलाइए ॥२६॥ १. पृथिवीधरः पर्वतः । २. प्रतिषु 'जायत' इति पाठः । ३. उदयाद्यनुजास्तेषां म. । ४. निर्मिताः म. । ५. पथश्रेणी म. । ६. सलक्षणा ख. । ७. स भ्रमणम् । ८. दुःखितः म. । ९. एकान्तग्रहम-स. ।
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