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चतुर्दशं पर्व
३३१ गुणालङ्कारसंपन्नः सुशीलसुरभीकृतः । सर्वेन्द्रियहरं भोगं भजते त्रिदशालये ॥३४५॥ ततः कतिचिदावृत्तीः कृत्वा शुभगतिद्वये । प्रयाति परमं स्थानं सर्वकर्मविवर्जितः ॥३४६॥ विषया हि समभ्यस्ताश्चिरं सकलजन्तुमिः । ततस्तैमोहिताः कर्तुं विरतिं विभवो' न ते ॥३४७॥ इदं तत्र परं चित्रं ये तान् दृष्ट्वा विषान्नवत् । निर्वाणकारणं कर्म सेवन्ते पुरुषोत्तमाः ॥३४८॥ संसारे भ्रमतो जन्तोरेकापि विरतिः कृता । सम्यग्दर्शनयुक्तस्य मुक्तेरायाति बीजताम् ॥३४९॥ एकोऽपि नास्ति येषां तु नियमः प्राणधारिणाम् । पशवस्तेऽथवा मग्नकुम्भा गुणविवर्जिताः ॥३५०॥ गुणव्रतसमृद्धेन नियमस्थेन जन्तुना । भाव्यं प्रमादयुक्तेन संसारतरणैषिणा ॥३५१॥ दुष्कर्म ये न मुञ्चन्ति मानवा मतिदुर्विधाः । भ्रमन्ति भवकान्तारं जात्यन्धा इव ते चिरम् ॥३५२॥ ततस्तेऽनन्तवीर्येन्दुवाङ्मरीचिसमागमात् । प्रमोदं परमं प्राप्तास्तिर्यामानवनाकजाः ॥३५३॥ सम्यग्दर्शनमायाताः केचित्केचिदणुव्रतम् । महाव्रतधराः केचिज्जाता विक्रमशालिनः ॥३५४॥ अथ धर्मरथाख्येन मुनिनाभाषि रावणः । गृहाण नियमं भव्य कचिदित्यात्मशक्तित: ॥३५५॥ द्वीपोऽयं धर्मरत्नानामनगारमहेश्वरः । गृह्यतामेकमप्यस्माद्रलं नियमसंज्ञकम् ॥३५६॥ किमर्थमेव मास्से त्वं चिन्ताभारवशीकृतः । महतां हि ननु त्यागो न मतेः खेदकारणम् ॥३५७॥ रत्नद्वीपं प्रविष्टस्य यथा भ्रमति मानसम् । इदं वृत्तं तथैवास्य परमाकुलतां गतम् ॥३५८॥
समान मिथ्यामत रूपी वायुसे सदा अक्षोभ्य रहता है ॥३४४|| जो गुणरूपी अलंकारोंसे सुशोभित है तथा जिसका शरीर शीलवत रूपी चन्दनसे सुगन्धित है ऐसा वह पुरुष स्वर्गमें समस्त इन्द्रियोंको हरनेवाले भोग भोगता है ॥३४५।। तदनन्तर मनुष्य और देव इन दो शुभगतियोंमें कुछ आवागमन कर सर्वकर्मरहित हो परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ।।३४६।। चूंकि पंचेन्द्रियोंके विषय सब जीवोंके द्वारा चिरकालसे अभ्यस्त हैं इसलिए इनसे मोहित हुए प्राणी विरति (त्यागआखड़ी) करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते हैं ॥३४७।। यहाँ बड़ा आश्चर्य तो यही है कि फिर भी उत्तम पुरुष उन विषयोंको विषमिश्रित अन्नके समान देखकर मोक्ष प्राप्तिके साधक कार्यका सेवन करते हैं ॥३४८।। संसारमें भ्रमण करनेवाले सम्यग्दष्टि जीवको यदि एक ही विरति (आखड़ी) प्राप्त हो जाती है तो वह मोक्षका बीज हो जाती है ॥३४९।। जिन प्राणियों के एक भी नियम नहीं है वे पशु हैं अथवा रस्सीसे रहित (पक्षमें व्रतशील आदि गुणोंसे रहित) फूटे घड़ेके समान हैं ॥३५०|| गुण और व्रतसे समृद्ध तथा नियमोंका पालन करनेवाला प्राणी यदि वह संसारसे पार होनेकी इच्छा रखता है तो उसे प्रमादरहित होना चाहिए ॥३५१॥ जो बुद्धिके दरिद्र मनुष्य दुष्कर्म-खोटे कार्य नहीं छोड़ते हैं वे जन्मान्ध मनुष्योंके समान चिरकाल तक संसाररूपी अटवीमें भटकते रहते हैं ॥३५२॥
तदनन्तर वहाँ जो भी तिर्यंच, मनुष्य और देव विद्यमान थे वे उन अनन्तबल केवली रूपी चन्द्रमाके वचन रूपी किरणोंके समागमसे परम हर्षको प्राप्त हुए ॥३५३॥ उनमेंसे कोई तो सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए, कोई अणुव्रती हुए और कोई बलशाली महावतोंके धारक हुए ॥३५४|| अथानन्तर धर्मरथ नामक मुनिने रावणसे कहा कि हे भव्य ! अपनी शक्तिके अनुसार कोई नियम ले ॥३५५।। ये मुनिराज धर्मरूपी रत्नोंके द्वीप हैं सो इनसे अधिक नहीं तो कमसे कम एक ही नियम रूपी रत्न ग्रहण कर ॥३५६।। इस प्रकार चिन्ताके वशीभूत होकर क्यों बैठा है ? निश्चयसे त्याग महापुरुषोंकी बुद्धिके खेदका कारण नहीं है अर्थात् त्यागसे महापुरुषोंको खिन्नता नहीं होती प्रत्युत प्रसन्नता होती है ॥३५७।। जिस प्रकार रत्नद्वीपमें प्रविष्ट हुए पुरुषका चित्त 'यह लूँ या यह लूं' इस तरह चंचल होकर घूमता है उसी प्रकार इस चारित्र रूपी द्वीपमें १. समर्थाः । २. गुणवृत्तसमृद्धेन म. । ३. नियमस्तेन म.। ४. मुनिराजः । ५. -मारेभे म.।
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