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चतुर्दशं प
प्रासादादि ततः कार्यं जिनानां भक्तितत्परैः । माल्यधूपे प्रदीपादि सर्व च कुशलैर्जनैः ॥९३॥ स्वर्गे मनुष्यलोके च भोगानत्यन्तमुन्नतान् । जन्तवः प्रतिपद्यन्ते जिनानुद्दिश्य दानतः ॥ ९४ ॥ तन्मार्गप्रस्थितानां च दत्तं दानं यथोचितम् । करोति विपुलान् भोगान् गुणानामिति माजनम् ||१५|| यथाशक्ति ततो भक्त्या सम्यग्दृष्टिषु यच्छतः । दानं तदेकमात्रास्ति शेषं चोरैर्विलुण्ठितम् ||१६|| स्थितं ज्ञानस्य साम्राज्ये केवलं परिकीर्त्यते । निर्वाणं तस्य संप्राप्तावुपैति ध्यानयोगतः || ९७|| विमुक्ताशेषकर्माणः सर्ववाधाविवर्जिताः । अनन्तसुखसंपन्ना अनन्तज्ञानदर्शनाः ||१८|| अशरीराः स्वभावस्था लोकमूर्ध्नि प्रतिष्टिताः । प्रत्यापत्तिविनिर्मुक्ताः सिद्धा वक्तव्यवर्जिताः || ९९ ॥ “गर्द्धापवनसंवृद्धदुःखपावकमध्यगाः । क्लिश्यन्ते 'पापिनो नित्यं विना सुकृतवारिणा ॥ १०० ॥ पापान्धकारमध्यस्थाः कुदर्शनवशीकृताः । बोधं केचित्प्रपद्यन्ते धर्मादित्यमरोचिमिः ॥१०१॥ अशुमायोमयात्यन्तैदृढपञ्जरमध्यगाः । आशापाशवशा जीवा मुच्यन्ते धर्मबन्धुनाँ ।।१०२।। सिद्धो व्याकरणालो कबिन्दु सारैकदेशतः । धारणार्थो धृतो 'धर्मशब्दो वाचि परिस्थितः ||१०३ || पतन्तं दुर्गतौ यस्मात्सम्यगाचरितो 'भवन् । प्राणिनं धारयत्यस्माद्धर्म इत्यभिधीयते ॥१०४॥
मिर्धातुः स्मृतः प्राप्तौ प्राप्तिः संपर्क उच्यते । तस्य धर्मस्य यो लाभो धर्मलाभः स उच्यते ।। १०५ ।।
इसलिए भक्ति तत्पर रहनेवाले कुशल मनुष्यों को जिन-मन्दिर आदि बनवाना चाहिए और माला, धूप, दीप आदि सबकी व्यवस्था करनी चाहिए ||१३|| जिनेन्द्र भगवान्को उद्देश्य कर जो दान दिया जाता है उसके फलस्वरूप जीव स्वर्गं तथा मनुष्यलोक सम्बन्धी उत्तमोत्तम भोग प्राप्त करते हैं ॥९४॥
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सन्मार्ग में प्रयाण करनेवाले मुनि आदिके लिए जो यथायोग्य दान दिया जाता है वह उत्कृष्ट भोग प्रदान करता है । इस प्रकार यही दान गुणों का पात्र है || ९५|| इसलिए सामर्थ्य के अनुसार भक्तिपूर्वक सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके लिए जो दान देता है उसीका दान एक दान है। बाकी तो चोरोंको धन लुटाना है || ९६ || केवलज्ञान ज्ञानके साम्राज्य पदपर स्थित है । ध्यानके प्रभाव से जब केवलज्ञानकी प्राप्ति हो चुकती है तभी यह जीव निर्वाणको प्राप्त होता है ॥९७|| जिनके समस्त कर्म नष्ट हो चुकते हैं, जो सर्वं प्रकारकी बाधाओंसे परे हो जाते हैं, जो अनन्त सुख से सम्पन्न रहते हैं, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन जिनकी आत्मामें प्रकाशमान रहते हैं. जिनके तीनों प्रकारके शरीर नष्ट हो जाते हैं, निश्चयसे जो अपने स्वभावमें ही स्थित रहते हैं और व्यवहारसे लोक - शिखर पर विराजमान हैं, जो पुनरागमनसे रहित हैं और जिनका स्वरूप शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता वे सिद्ध भगवान् हैं ॥ ९८-९९ || लोभरूपी पवनसे बढ़े दुःख रूपी अग्निके बीच में पड़े पापी जीव पुण्य रूपी जलके बिना निरन्तर क्लेश भोगते रहते हैं ॥१००॥ पापरूपी अन्धकार के बीच में रहनेवाले तथा मिथ्यादर्शनके वशीभूत कितने ही जीव धर्मरूपी सूर्यकी किरणोंसे प्रबोधको प्राप्त होते हैं ॥ १०१ ॥ जो अशुभभावरूपी लोहेके मजबूत पिंजरेके मध्य में रह रहे हैं तथा आशारूपी पाशके अधीन हैं ऐसे जीव धर्मरूपी बन्धुके द्वारा ही मुक्त किये जाते हैंबन्धनसे छुड़ाये जाते हैं ॥ १०२ ॥ जो लोकबिन्दुसार नामक पूर्वका एक देश है ऐसे व्याकरणसे सिद्ध है कि जो धारण करे सो धर्मं है । 'धरतीति धर्म:' इस प्रकार उसका निरुक्त्यर्थं है || १०३॥ और यह ठीक भी है क्योंकि अच्छी तरहसे आचरण किया हुआ धर्मं दुर्गति में पड़ते हुए जीवको धारण कर लेता है - बचा लेता है इसलिए वह धर्मं कहलाता है
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१०४ || लभ धातुका अर्थ प्राप्ति
१. धूम म । २. आनन्द म । ३. गृद्धा म । ४. पापतः क., ख., म. । ५. अशुभभावरूप - लोहनिर्मित सुदृढपञ्जरमध्यगताः । ६. धर्मपञ्जर म. । ७. धर्मबन्धना म. 1८. धर्मः ख. । ९. भवेत् म. । भवत् ख, ब, ।
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