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पद्मपुराणे
विरोचनेऽस्त संसर्गं गते ये भुञ्चते जनाः । ते मानुषतया बद्धाः पशवो गदिता बुधैः ॥ २७४ ॥ नक्तं दिवा च भुञ्जानो विमुखो जिनशासने । कथं सुखी परत्र स्यान्निर्वतो नियमोज्झितः ॥ २७५॥ दयामुक्तो जिनेन्द्राणां पापः कुत्सामुदाहरन् । अन्यदेहं गतो जन्तुः पूतिगन्धमुखो भवेत् ॥ २७६॥ मांसं मद्यं निशाभुक्तिं स्तेयमन्यस्य योषितम् । सेवते यो जनस्तेन भवे जन्मद्वयं हतम् ॥ २७७॥ हस्वायुर्वित्तमुक्तश्च व्याधिपीडितविग्रहः । परत्र सुखहीनः स्यान्नक्तं यः प्रत्यवश्यति ॥ २७८ ॥ प्राप्नोति जन्ममृत्युं च दीर्घकालमनन्तरम् । पच्यते गर्भवासेषु दुःखेन निशि मोजनात् ॥ २७९ ॥ वराहवृकमार्जारहंसकाकादियोनिषु । जायते सुचिरं कालं रात्रिभोजी कुदर्शनः ॥ २८० ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः सहस्राणि कुयोनिषु । आपनीपद्यते दुःखं कुधीर्यो निशि वल्भते ॥ २८१॥ अवाप्य यो मतं जैनं नियमेष्ववतिष्ठते । अशेषं किल्विषं दग्ध्वा सुस्थानं सोऽधिगच्छति ॥ २८२॥ रत्नत्रितयसंपूर्णा अणुव्रतपरायणाः । तरणावुदिते मध्या भुञ्जते दोषवर्जितम् ॥ २८३॥ अपापास्तेऽधिगच्छन्ति विमानेशास्त्रिविष्टपाः । परं भोगं न ये रात्रौ भुञ्जते करुणा पराः ॥ २८४ ॥ ततश्च्युत्वा मनुष्यत्वं प्राप्य निन्दाविवर्जितम् । भुञ्जते चक्रवर्त्यादिविभवोपहृतं सुखम् ॥ २८५॥ सौधर्मादिषु कल्पेषु मानसानीतकारणम् । प्राप्नुवन्ति परं भोगं सिद्धिं च शुभचेष्टिताः ॥ २८६॥ जगद्धिता महामात्या राजानः पीठमर्दिनः । संमताः सर्वलोकस्य भवन्ति दिनभोजनात् ॥२८७॥ धनवन्तो गुणोदाराः सुरूपा दीर्घजीविताः । जिनबोधिसमायुक्ताः प्रधानपदसंस्थिताः ॥२८८॥
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संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो रातमें भोजन करता है वह सब अपवित्र पदार्थ खाता है ||२७३॥ सूर्यके अस्त हो जानेपर जो भोजन करते हैं उन्हें विद्वानोंने मनुष्यतासे बँधे हुए पशु कहा है || २७४|| जो जिनशासनसे विमुख होकर रात-दिन चाहे जब खाता रहता है वह नियमरहित अव्रती मनुष्य परलोक में सुखी कैसे हो सकता है ? || २७५ || जो पापी मनुष्य दयारहित होकर जिनेन्द्र देवको निन्दा करता है वह अन्य शरीरमें जाकर दुर्गन्धित मुखवाला होता है अर्थात् परभवमें उसके मुखसे दुर्गंन्ध आती है || २७६ || जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रिभोजन, चोरी और परस्त्रीका सेवन करता है वह अपने दोनों भवोंको नष्ट करता है || २७७ || जो मनुष्य रात्रिमें भोजन करता है वह परभवमें अल्पायु, निर्धन, रोगी और सुखरहित अर्थात् दुःखी होता है || २७८ ॥ रात्रिमें भोजन करनेसे यह जीव दीर्घ काल तक निरन्तर जन्म-मरण प्राप्त करता रहता है और गर्भवास में दुःख से पकता रहता है || २७९ || रात्रिमें भोजन करनेवाला मिथ्यादृष्टि पुरुष शूकर, भेड़िया, बिलाव, हंस तथा कौआ आदि योनियोंमें दीर्घ काल तक उत्पन्न होता रहता है || २८०॥ जो दुर्बुद्धि रात्रि में भोजन करता है वह हजारों उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल तक कुयोनियों में दुःख उठाता रहता है || २८१|| जो जैन धर्म पाकर उसके नियमों में अटल रहता है वह समस्त पापोंको जलाकर उत्तम स्थानको प्राप्त होता है ॥२८२ ॥ रत्नत्रयके धारक तथा अणुव्रतों का पालन करने में तत्पर भव्य जीव सूर्योदय होनेपर ही निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं ||२८३ || जो दयालु मनुष्य रात्रिमें भोजन नहीं करते वे पापहीन मनुष्य स्वर्ग में विमानोंके अधिपति होकर उत्कृष्ट भोग प्राप्त करते हैं ||२८४ ॥ वहाँसे च्युत होकर तथा उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर चक्रवर्ती आदिके विभवसे प्राप्त होनेवाले सुखका उपभोग करते हैं ॥ २८५ ॥ शुभ चेष्टाओंके धारक पुरुष सौधर्मादि स्वर्गीमें मनमें विचार आते ही उपस्थित होनेवाले उत्कृष्ट भोगों तथा अणिमा - महिमा आदि आठ सिद्धियोंको प्राप्त होते हैं ||२८६ ॥ । दिनमें भोजन करनेसे मनुष्य जगत्का हित करनेवाले महामन्त्री, राजा, पीठमर्दं तथा सर्व लोकप्रिय व्यक्ति होते हैं ||२८७॥ धनवान्, गुणवान्, रूपवान्, दीर्घायुष्क, रत्नत्रय से युक्त तथा प्रधान पदपर आसीन व्यक्ति भी दिनमें भोजन करने से ही होते हैं ॥ २८८ ॥ १. निन्दाम् । २. भुङ्क्ते, प्रत्यवस्यति ख । ३. सूर्ये । ४. मानुषातीतकारणं म., मानुषानीतकारणं ब. ।
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