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पद्मपुराणे मवन्त्युत्कण्ठया युक्तास्तासु विद्याधराधिपाः । हरयो बलदेवाश्च तथा चक्रातिश्रियः ॥३०॥ विद्यद्भक्तोस्पलच्छायाः स्फुरल्ललितकुण्डलाः। नरेन्द्रकृतसंबन्धा भवन्ति दिनभोजनात् ॥३०५॥ अन्नं यथेप्सितं तासां जायते भृत्यकल्पितम् । निशासु या न कुर्वन्ति भोजनं करुणापराः ॥३०६॥ श्रीकान्तासुप्रमातुल्याः सुभद्रासदृशस्तथा । लक्ष्मीसमरिवषो योषा भवन्ति दिनमोजनात् ॥३०७॥ तस्मामरेण नार्या वा नियमस्थेन चेतसा । वर्जनीया निशाभुक्तिरनेकापायसंगता ॥३०॥ अत्यल्पेन प्रयासेन शर्मैवमुपलभ्यते । ततो मजत तं नित्यं स्वसुखं को न वाञ्छति ॥३०९।। धर्मो मूलं सुखोत्पत्तरधर्मो दुःखकारणम् । इति ज्ञात्वा मजेद्धर्ममधर्म च विवर्जयेत् ॥३१०।। आगोपालाङ्गनं लोके प्रसिद्धिमिदमागतम् । यथा धर्मेण शर्मेति विपरीतेन दुःखितम् ॥३१॥ धर्मस्य पश्य माहात्म्यं येन नाकच्युता नराः । उत्पद्यन्ते महाभोगा मनुष्यस्वे मनोहराः ॥३१२॥ जलस्थलसमुद्भूतरत्नानां ते समाश्रयाः । औदासीन्यमपि प्राप्ता भवन्ति सुखिनः सदा ॥३१३॥ सुवर्णवस्त्रसस्यादिभाण्डागाराणि मानवैः । रक्ष्यन्ते सततं तेषां विचित्रायुधपाणिमिः ॥३१४॥ प्रभूतं गोमहिष्यादिवारणास्तुरगा रथाः । भृत्या जनपदा ग्रामाः प्रासादा नगराणि च ॥३१५।। दासवर्गो विशाला श्रीविष्टर हरिभिर्धतम् । मानसस्येन्द्रियाणां च विषयाहरणक्षमाः ॥३१६॥ हंसीविभ्रमगामिन्यो घनलावण्यविग्रहाः । माधुर्ययुक्तनिस्वानाः पीनस्तन्यः सुलक्षणाः ॥३१७॥
चक्षुषां वागुरातुल्यास्तरुण्यो हारिचेष्टिताः । नानालंकारधारिण्यो दास्यः पुण्यफलात्मिकाः ॥३१८॥ होते हैं, अपने वचनोंसे मानो वे अमृत छोड़ती हैं, समस्त लोगोंको आनन्दित करती हैं ॥३०३।। विद्याधरोंके अधिपति, नारायण, बलदेव और चक्रवर्ती भी उनमें उत्कण्ठित रहते हैं-उन्हें प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं ॥३०४|| जिनके शरीरको कान्ति बिजली तथा लाल कमलके समान मनोहारी है, जिनके सुन्दर कुण्डल सदा हिलते रहते हैं, तथा राजाओंके साथ जिनके विवाह सम्बन्ध होते हैं ऐसी स्त्रियाँ दिनमें भोजन करनेसे ही होती हैं ।।३०५।। जो दयावती स्त्रियाँ रात्रिमें भोजन नहीं करती हैं उन्हें सदा भृत्य जनोंके द्वारा तैयार किया हुआ मनचाहा भोजन प्राप्त होता है ॥३०६।। दिनमें भोजन करनेसे स्त्रियां श्रीकान्ता, सुप्रभा, सुभद्रा और लक्ष्मीके समान कान्तियुक्त होती हैं ।।३०७।। इसलिए नर हो चाहे नारी, दोनोंको अपना चित्त नियममें स्थिरकर अनेक दुःखोंसे सहित जो रात्रि भोजन है उसका त्याग करना चाहिए ॥३०८॥ इस प्रकार थोड़े ही प्रयाससे जब सुख मिलता है तो उस प्रयासका निरन्तर सेवन करो। ऐसा कोन है जो अपने लिए सुखकी इच्छा न करता हो ॥३०९॥ 'धर्म सुखोत्पत्तिका कारण है और अधर्म दुःखोत्पत्तिका' ऐसा जानकर धर्मकी सेवा करनी चाहिए और अधर्मका परित्याग ॥३१०॥ यह बात गोपालकों तकमें प्रसिद्ध है कि धर्मसे सुख होता है और अधर्मसे दुःख ॥३११॥ धर्मका माहात्म्य देखो कि जिसके प्रभावसे प्राणी स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं और वहां महाभोगोंसे यक्त तथा मनोहर शरीरके धारक होते हैं ॥३१२॥ वे जल तथा स्थलमें उत्पन्न हुए रत्नोंके आधार होते हैं और उदासीन होनेपर भी सदा सुखी रहते हैं ॥३१३।। ऐसे मनुष्योंके स्वर्ण, वस्त्र तथा धान आदिके भाण्डारोंकी रक्षा हाथोंमें विविध प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले लोग किया करते हैं ॥३१४॥ उन्हें अत्यधिक गाय, भैंस आदि पशु, हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरोंके समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते हैं। साथ ही जो मन और इन्द्रियोंके विषय उत्पन्न करनेमें समर्थ हैं, जिनकी चाल हंसीके समान विलास पूर्ण है, जिनका शरीर अत्यधिक सौन्दर्यसे युक्त है, जिनकी आवाज मीठी है, जिनके स्तन स्थूल हैं, जो अनेक शुभ लक्षणोंसे युक्त हैं, जो नेत्रोंको पराधीन करनेके लिए जालके समान हैं, तथा जिनकी चेष्टाएँ मनोहर हैं ऐसी अनेक तरुण स्त्रियां १. नारायणाः । २. नियमस्तेन म. । ३. प्रसिद्ध म.। ४. दुःखिता क., ख., म.। ५. मनोरमचेष्टायुक्ताः । हारचेष्टिताः म., ख.।
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