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पपपुराणे रागद्वेषानुमेयश्च तेषां मोहोऽपि विद्यते । तयोहि कारणं मोहो दोषाः शेषास्तु तन्मयाः ॥४२॥ मनुष्या एव ये 'केचिद्देवा भोजनमाजनम् । कषायतनवः काले देशकामादिसेविनः ॥८३॥ एवंविधाः कथं देवा दानगोचरतां गताः । अधमा यदि वा तुल्याः फलं कुर्युमनोहरम् ॥८॥ दृष्टोऽपि तावदेतेषां विपाकः शुमकर्मणः । कुत एव शिवस्थानेसंप्राप्तिर्दुःखितात्मनाम् ।।८५|| तदेतसिकतामुष्टिपीडनातैलवान्छितम् । विनाशनं च तृष्णाया सेवनादाशुशुक्षणेः ॥८६॥ पङ्गुना नीयते पङ्गुर्यदि देशान्तरं ततः । एतेभ्यः क्लिश्यतो जन्तोदेवेभ्यः जायते फलम् ॥८॥ एषां तावदियं वार्ता देवानां पापकर्मणाम् । तद्भक्तानां तु दूरेण सत्पात्रत्वं न युज्यते ॥८॥ लोभेन चोदितः पापो जनो यज्ञे प्रवर्तते । कुर्वतो हि तथा लोको धनं तर्हि प्रयच्छति ॥८९॥ तस्मादुद्दिश्य यद्दानं दीयते जिनपुङ्गवम् । सर्वदोषविनिमुक्तं तद्ददाति फलं महत् ॥१०॥ वाणिज्यसदृशो धर्मस्तत्रान्वेष्याल्पभृरिता । बहुना हि परामतिः क्रियतेऽल्पस्य वस्तुनः ॥११॥
यथा विषकणः प्राप्तः सरसीं नैव दुष्यति । जिनधर्मोद्यतस्यैवं हिंसालेशो वृथोद्भवः ॥१२॥ वे शस्त्र लिये रहते हैं इससे द्वेषी सिद्ध होते हैं और स्त्री साथमें रखते हैं तथा आभूषण धारण करते हैं इससे रागी सिद्ध होते हैं। राग-द्वेषके द्वारा उनके मोहका भी अनुमान हो जाता है क्योंकि मोह राग-द्वेष का कारण है। इस प्रकार राग-द्वेष और मोह ये तीन दोष उनमें सिद्ध हो गये बाकी अन्य दोष इन्हींके रूपान्तर हैं ।।८१-८२॥ लोकमें जो कुछ मनुष्य देवके रूपमें प्रसिद्ध हैं वे साधारण जनके समान ही भोजनके पात्र हैं अर्थात् भोजन करते हैं, कषायसे युक्त हैं और अवसरपर आंशिक कामादिका सेवन करते हैं सो ऐसे देव दानके पात्र कैसे हो सकते हैं ? वे कितनी ही बातोंमें जब कि अपने भक्त जनोंसे गये-गुजरे अथवा उनके समान ही हैं तब उन्हें उत्तम फल कैसे दे सकते हैं ? ॥८३-८४॥ यद्यपि वर्तमानमें उनके शुभ कर्मों का उदय देखा जाता है तो भी उनसे अन्य दुःखी मनुष्योंको मोक्षकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? ॥८५॥ ऐसे कुदेवोंसे मोक्षकी इच्छा करना बालूकी मुट्ठी पेरकर तेल प्राप्त करनेकी इच्छाके समान है अथवा अग्निकी सेवासे प्यास नष्ट करनेकी इच्छाके तुल्य है ।।८६।। यदि एक लँगड़ा मनुष्य दूसरे लँगड़े मनुष्यको देशान्तरमें ले जा सकता हो तो इन देवोंसे दूसरे दुःखी जीवोंको भी फलकी प्राप्ति हो सकती है ॥८७॥ जब इन देवोंकी यह बात है तब पाप कार्य करनेवाले उनके भक्तोंकी बात तो दूर ही रही। उनमें सत्पात्रता किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकती ॥८८॥ लोभसे प्रेरित हुए पापी जन यज्ञमें प्रवृत्त होते हैं और लोग ऐसा करने वालोंको दक्षिणा आदिके रूपमें धन देते हैं सो यह निर्दोष कैसे हो सकता है ? ॥८९॥ इसलिए जिनेन्द्र देवको उद्देश्य कर जो दान दिया जाता है वही सर्वदोष रहित है और वही महाफल प्रदान करता है ॥९०॥ धर्म तो व्यापारके समान है, जिस प्रकार व्यापारमें सदा हीनाधिकताका विचार किया जाता है उसी प्रकार धर्ममें भी सदा हीनाधिकताका विचार रखना चाहिए अर्थात् हानि-लाभपर दृष्टि रखना चाहिए। जिस धर्ममें पुण्यकी अधिकता हो और पापकी न्यूनता हो गृहस्थ उसे स्वीकृत कर सकता है क्योंकि अधिक वस्तुके द्वारा हीन वस्तुका पराभव हो जाता है ॥९१॥ जिस प्रकार विषका एक कण तालाबमें पहुंचकर पूरे तालाबको दूषित नहीं कर सकता उसी प्रकार जिनधर्मानुकूल आचरण करनेवाले पुरुषसे जो थोड़ी हिंसा होती है वह उसे दूषित नहीं कर सकती। उसकी वह अल्प हिंसा व्यर्थ रहती है ।।१२।।
१. केचिदेभ्यः म. । २. भजनभाजनम् ख. । पूजनभाजनम् म., ब.। ३. कालदेशकामादि-म., ख., ब. । ४. दृष्टेऽपि ख., म., ब., ज.। ५. विपाके ख., म., ब., ज.। ६. शिवस्थानं संप्राप्ती म.। शिवस्थान प्राप्ती ख. । शिवस्थानं संप्राप्ती ब. ।
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