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पद्मपुराणे
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मानापमानयोस्तुल्यस्तथा यः सुखदुःखयोः । तृणकाञ्चनयोश्चैष साधुः पात्रं प्रशस्यते ॥५७॥ सर्वग्रन्थविनिर्मुक्ता महातपसि ये रताः । श्रमणास्ते परं पात्रं तत्त्वध्यानपरायणाः ॥ ५८ ॥ तेभ्यो मावेन यद्दत्तं शक्त्या पानान्नभेषजम् । यथोपयोगमन्यच्च तद्यच्छति महाफलम् ॥ ५९ ॥ क्षिप्तं यथैव सत्क्षेत्रे बीजं तत्संपदं पराम् । प्रयच्छति तथा दत्तं सत्पात्रे शुद्धचेतसा ॥ ६० ॥ रागद्वेषादिभिर्युक्तं यत्तु पात्रं न तन्मतम् । प्रयच्छति फलं दूरं तत्र लाभविचिन्तितम् ॥६१॥ क्षिप्तं यैथोषरे बोजं न किंचिर्त्तेत्र जायते । मिथ्यादर्शनसंयुक्तपापपात्रोद्यतं तथा ॥ ६२ ॥ कूपादुष्टतमेकस्मात्सलिलं प्रतिपद्यते । माधुर्यमिक्षुभिः पीतं निम्बपीतं तु तिक्तताम् ॥६३॥ सरस्यां जलमेकस्यां गवात्तं पन्नगेन च । क्षीरभावमवाप्नोति विषतां च यथा तथा ॥६४॥ विन्यस्तं भावतो दानं सम्यग्दर्शनमाविते । मिथ्यादर्शनयुक्ते तु शुभाशुभफलं भवेत् ॥ ६५॥ दीनान्धादिजनेभ्यस्तु करुणापरिचोदितम् । दानमुक्तं फलं तस्माद् यद्यपि स्यान सत्तमम् ॥ ६६ ॥ वदन्ति लिङ्गिनः सर्वे स्वानुकूलं प्रयत्नतः । धर्मं स तु विशेषेण परीक्ष्यः शुभमानसैः ॥ ६७ ॥ द्रव्यं यदात्मतुल्येषु गृहस्थेषु विसृज्यते । कामक्रोधादियुक्तेषु तत्र का फलभोगिता ।। ६८ ।।
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है वह उत्तम कहलाता है ॥ ५६ ॥ जो मान, अपमानं, सुख-दुःख और तृण कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साधु पात्र कहलाता है ||५७|| जो सब प्रकारके परिग्रहसे रहित हैं, महातपश्चरणमें लीन हैं और तत्त्वोंके ध्यानमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे श्रमण अर्थात् मुनि उत्तम पात्र कहलाते हैं ||१८|| उन मुनियोंके लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भावपूर्वक जो भी अन्न, पान, औषधि अथवा उपयोग में आनेवाले पीछी, कमण्डलु आदि अन्य पदार्थं दिये जाते हैं वे महाफल प्रदान करते हैं ||१९|| जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में बोया हुआ बीज अत्यधिक सम्पदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्रके लिए शुद्ध हृदयसे दिया हुआ दान अत्यधिक सम्पदा प्रदान करता है || ६०|| जो रागद्वेष आदि दोषोंसे युक्त है वह पात्र नहीं है और न वह इच्छित फल ही देता है अतः उसके फलका विचार करना दूरकी बात है ||६१ ||
जिस प्रकार ऊषर जमीनमें बीज बोया जाय तो उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादर्शनसे सहित पापी पात्र के लिए दान दिया जाय तो उससे कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता || ६२ || एक कुएँसे निकाले हुए पानीको यदि ईखके पौधे पीते हैं तो वह माधुर्यं प्राप्त होता है और यदि नीमके पौधे पीते हैं तो कडुआ हो जाता है || ६३ || अथवा जिस प्रकार एक ही तालाब में गायने पानी पिया और सांपने भी । गायके द्वारा पिया पानी दूध हो जाता है और साँपके द्वारा पिया पानी विष हो जाता है, उसी प्रकार एक ही गृहस्थसे उत्तम पात्रने दान लिया और नीच पात्रने भी। जो दान उत्तम पात्रको प्राप्त होता है उसका फल उत्तम होता है और जो नीच पात्रको प्राप्त होता है उसका फल नीचा होता है ||६४ || कोई-कोई पात्र मिथ्यादर्शन से युक्त होने पर भी सम्यग्दर्शनकी भावनासे युक्त होते हैं ऐसे पात्रोंके लिए भावसे जो दान दिया जाता है उसका फल शुभ-अशुभ अर्थात् मिश्रित प्रकारका होता है || ६५ || दीन तथा अन्धे आदि मनुष्योंके लिए करुणा दान कहा गया है और उससे यद्यपि फलकी भी प्राप्ति होती है पर वह फल उत्तम फल नहीं कहा जाता ||६६ || सभी वेषधारी प्रयत्नपूर्वक अपने अनुकूल धर्मका उपदेश देते हैं पर उत्तम हृदयके धारक मनुष्योंको विशेषकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए ||६७ || काम-क्रोधादिसे युक्त तथा अपनी समानता रखनेवाले गृहस्थोंके लिए जो द्रव्य
१. यत्तु पात्रं न तन्मतम् म, ख., ज । यत्तु पात्रं न तत्समम् ब । २. तत्र लाभविचिन्तनम् म. । ३. क्षिप्तं यदि रणे वीजं' म., ख., क. । ४. न किञ्चिदुपजायते म. । ५. मिथ्यादर्शनसंयुक्तं पापं पात्रोद्यतं तथा न. ।
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