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पद्मपुराणे
भगवन ममाद्यापि जायते प्राप्ततृप्तिता । अतो विधानतो धर्मं निवेदयितुमर्हसि ॥ १६२ ॥ ततोऽनन्तबलोऽवोचद्विशेषं सौकृतं शृणु । संसाराद्येन मुच्यन्ते प्राणिनो भव्यताभृतः ॥ १६३॥ द्विविधो गदितो धर्मो महत्त्वादाणवात्तथा । आद्योऽगारविमुक्तानामन्यश्च भववर्तिनाम् ॥१६४॥ विसृष्टसर्वसंगानां श्रमणानां महात्मनाम् । कीर्तयामि समाचारं दुरितक्षोदनक्षमम् ॥ १६५ ॥ मते सुव्रतनाथस्य लीनां निखिलवेदिनः । मृत्यु जन्मसमुद्भूतै महात्रास समन्विताः ॥ १६६॥ एरण्डसदृशं ज्ञात्वा मनुष्यत्वमसारकम् । संगेन रहिता धन्या "श्रमणत्वमुपाश्रिताः ॥१६७॥ रता महत्वयुक्तेषु पञ्चसंख्येषु साधवः । व्रतेष्वाविग्रहत्यागात्तत्त्वावगमतत्पराः ॥ १६८ ॥ समितिष्वपि तत्संख्यासंगतासु सुचेतसः । अभियुक्ता महासत्त्वास्त्रिसंख्यासु च गुप्तिषु ॥ १६९॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचयं यथोदितम् । येषामस्ति न तेषां स्यात्परिग्रहसमाश्रयः ॥ १७० ॥ देहेऽपि येन कुर्वन्ति निजे रागं मनीषिणः । कः स्यात्परिग्रहस्तेषां यत्नास्तमितशायिनाम् ॥ १७१ ॥ अपि बालाप्रमात्रेण पापोपार्जनकारिणा । ग्रन्थेन रहिता धीरा मुनयः सिंहविक्रमाः ॥ १७२ ॥ 'समस्तप्रतिबन्धेन समीरणवदुज्झिताः । खगानामपि संगः स्यान्न तु तेषां मनागपि ॥ १७३ ॥ व्योमन्मलसंबन्धरहिताः श्लाध्यचेष्टिताः । रजनीनाथवत्सौम्या दीप्ता दिवसनाथवत् ॥ १७४॥ निम्नगानाथगम्भीरा धीरा भूधरनाथवत् । भीतकूर्म वदत्यन्त गुप्तेन्द्रिय कदम्बकाः ॥१७५॥
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नेत्र कमलके समान विकसित हो गये । उसने भक्तिपूर्वक प्रणाम कर तथा हाथ जोड़कर पूछा fa || १६१ || हे भगवान् ! अभी जो उपदेश प्राप्त हुआ है उससे मुझे तृप्ति नहीं हुई है अतः भेदप्रभेदके द्वारा धर्मका निरूपण कीजिए || १६२ || तब अनन्तबल केवली कहने लगे कि अच्छा धर्मका विशेष वर्णन सुनो जिसके प्रभावसे भव्य प्राणी संसारसे मुक्त हो जाते हैं || १६३ || महाव्रत और असे धर्म दो प्रकारका कहा गया है। उनमें से पहला अर्थात् महाव्रत गृहत्यागी मुनियों के होता है और दूसरा अर्थात् अणुव्रत संसारवर्ती गृहस्थोंके होता है || १६४ || अब मैं समस्त परिग्रहोंसे रहित महान् आत्माके धारी मुनियोंका वह चरित्र कहता हूँ जो कि पापोंको नष्ट करने में समर्थ है ॥१६५॥ समस्त पदार्थोंको जाननेवाले मुनि सुव्रतनाथ तीर्थंकरके तीर्थंमें ऐसे कितने ही महापुरुष हैं जो जन्म-मरण सम्बन्धी महाभयसे युक्त हैं || १६६ ॥ | ये मनुष्य पर्यायको एरण्ड वृक्षके समान निःसार जानकर परिग्रहसे रहित हो मुनिपदको प्राप्त हुए हैं ॥ १६७॥ | वे साधु सदा पंच महाव्रतों में लीन रहते हैं और शरीरत्यागपर्यन्त तत्त्वज्ञान के प्राप्त करनेमें तत्पर होते हैं ।। १६८ ।। शुद्ध हृदयको धारण करनेवाले ये धैर्यशालो मुनि पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंमें सदा लीन रहते हैं ॥ १६९॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य और आगमानुमोदित बह्मचयं उन्हीं के होता है जिनके कि परिग्रहका आलम्बन नहीं होता || १७० || जो बुद्धिमान् जन अपने शरीरमें भी राग नहीं करते हैं और सूर्यास्त हो जानेपर यत्नपूर्वक विश्राम करते हैं उनके परिग्रह क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं || १७१ || मुनि पाप उपार्जन करनेवाले बालाग्रमात्र परिग्रहसे रहित होते हैं तथा अत्यन्त धीर-वीर और सिंह के समान पराक्रमी होते हैं ॥ १७२ ॥ ये वायुके समान सब प्रकार के प्रतिबन्धसे रहित होते हैं । पक्षियोंके तो परिग्रह हो सकता है पर मुनियोंके रंचमात्र भी परिग्रह नहीं होता ।।१७३।। ये आकांशके समान मलके संसर्गंसे रहित होते हैं, इनकी चेष्टाएँ अत्यन्त प्रशंसनीय होती हैं, ये चन्द्रमाके समान सौम्य और दिवाकरके समान देदीप्यमान होते हैं || १७४ ॥ ये समुद्रके समान गम्भीर, सुमेरुके समान धीर-वीर और भयभीत कछुए के समान समस्त इन्द्रियोंके समूहको अत्यन्त
१. सुकृतस्येदं सोकृतम् । २. लीला- म. । ३. महत्त्रास म । ४. संज्ञेन म. । ५. श्रवणत्व- म., ब. क. ६. रागे म. । ७. यत्रास्तमित-म., यशस्तमित-ख । ८ यत्नेनास्तमिते शेरत इत्येवं शीलानाम् । ९. प्रतिबन्धरहितत्वेन
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