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चतुर्दशं पव
संकल्प मात्र संभूत सर्वोपकरणं पुरु । विषयोत्थं सुखं तामिः प्राप्नुवन्ति समं सुराः ॥ १४७ ॥ सुखं यन्त्रिदशावासे यच्च मानुषविष्टपे । फलं तद्गदितं सर्वं धर्मस्य जिनपुङ्गवैः ॥ १४८॥ ऊर्ध्वाधमध्यलोकेषु यो नाम सुखसंज्ञितः । भोक्तृणां जायते मात्रः स सर्वो धर्मसंभवः ॥ १४९ ॥ दाता भोक्ता स्थितेः कर्ता यो नरः प्रतिवासरम् । रक्ष्यते नृसहस्रौघैः सर्वं तद्धर्मजं फलम् ॥ १५० ॥ यत्तत्सुरसहस्राणां हरिभूषणधारिणाम् । प्रभुत्वं कुरुते शक्रस्तत्फलं धर्मसंभवम् ॥ १५१ ॥ यन्मोहरिपुमुद्रास्य रत्नत्रय समन्विताः । सिद्धस्थानं प्रपद्यन्ते शुद्धधर्मस्य तत्फलम् ॥१५२॥ अप्राप्य मानुषं जन्म े स च धर्मो न लभ्यते । तस्मान्मनुष्य संप्राप्तिः परमा सर्वजन्मसु ॥१५३॥ राजा श्रेष्ठो मनुष्याणां मृगाणां केसरी यथा । पक्षिणां विनतापुत्रः भवानां मानुषो भवः ॥ १५४ ॥ सारस्त्रिभुवने धर्मः सर्वेन्द्रियसुखप्रदः । क्रियते मानुषे देहे ततो मनुजता परा ॥ १५५ ॥ नृणानां शालयः श्रेष्ठाः पादपानां च चन्दनाः । उपलानां च रत्नानि भवानां मानुषो भवः ॥ १५६ ॥ उत्सर्पिणीसहस्राणि परिभ्रम्य कथंचन । लभ्यते वा न वा जन्म मनुष्याणां शरीरिणा ॥ १५७ ॥ अवाप्य दुर्लभं तद्यः क्लेशनिर्मोक्षकारणम् । जनो न कुरुते धर्मं यात्यसौ दुर्गतीः पुनः ॥ १५८ ॥ पतितं तन्मनुष्यत्वं पुनर्दुर्लभ संगमम् । समुद्रसलिले नष्टं यथा रत्नं महागुणम् ॥ १५९ ॥ sa मानुषे लोके कृत्वा धर्मं यथोचितम् । स्वर्गादिषु प्रपद्यन्ते सर्व प्राणभृतः फलम् ॥ १६० ॥ सर्वोक्तमिदं श्रुत्वा भानुकर्णः ससंमदः । भक्तया प्रणम्य पद्माक्षः पर्यपृच्छत् कृताञ्जलिः ॥ १६१ ॥
समझने में कुशल, पंचेन्द्रियोंको सुख पहुँचानेवाली और इच्छानुसार रूपको धारण करनेवाली हैं || १४६ || देव लोग उन अप्सराओंके साथ जहाँ संकल्पमात्रसे ही समस्त उपकरण उपस्थित हो जाते हैं ऐसा विषयजन्य विशाल सुख भोगते हैं || १४७॥ अथवा मनुष्य लोकमें जो सुख प्राप्त होता है जिनेन्द्रदेवने उस सबको धर्मका फल कहा है ॥ १४८ ॥ ऊर्ध्वं, मध्य और अधोलोकमें उपभोक्ताओंको जो भी सुख नामका पदार्थ प्राप्त होता है वह सब धर्मंसे ही उत्पन्न होता है ॥ १४९ ॥ दान देनेवाले, उपभोग करनेवाले एवं मर्यादा स्थापित करनेवाले मनुष्यकी जो हजारों मनुष्यों के झुण्ड रक्षा करते हैं वह सब धर्मंसे उत्पन्न हुआ फल समझना चाहिए || १५० || मनोहर आभूषण धारण करनेवाले हजारों देवोंपर इन्द्र जो शासन करता है वह धर्मंसे उत्पन्न हुआ फल है ।। १५१ सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयसे युक्त जो पुरुष मोहरूपी शत्रुको नष्ट कर मोक्षस्थान प्राप्त करते हैं वह शुद्ध धर्मका फल है ।। १५२ || मनुष्य जन्मके बिना अन्यत्र वह धर्मं प्राप्त नहीं हो सकता इसलिए मनुष्यभवकी प्राप्ति सब भवोंमें श्रेष्ठ है || १५३ || जिस प्रकार मनुष्योंमें राजा, मृगोंमें सिंह और पक्षियोंमें गरुड़ श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब भवोंमें मनुष्यभव श्रेष्ठ हैं || १५४ || तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ एवं समस्त इन्द्रियोंको सुख देनेवाला धर्मं मनुष्यशरीरमें ही किया जाता है इसलिए मनुष्यदेह ही सर्वश्रेष्ठ है || १५५ ॥ जिस प्रकार तृणोंमें धान, वृक्षोंमें चन्दन और पत्थरोंमें रत्न श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब भवोंमें मनुष्यभव श्रेष्ठ है || १५६ ॥ हजारों उत्सर्पिणियों में भ्रमण करनेके बाद यह जीव किसी तरह मनुष्य जन्म प्राप्त करता है और नहीं भी प्राप्त करता है || १५७|| क्लेशोंसे छुटकारा देनेवाले उस मनुष्य जन्मको पाकर जो मनुष्य धर्म नहीं करता है वह पुनः दुर्गंतियोंको प्राप्त होता है || १५८ || जिस प्रकार समुद्रके पानी में गिरा महामूल्य रत्न दुर्लभ हो जाता है उसी प्रकार नष्ट हुए मनुष्य जन्मका पुनः पाना भी दुर्लभ है ।। १५९ || इसी मनुष्य पर्यायमें यथायोग्य धर्मं कर प्राणी स्वर्गादिक में समस्त फल प्राप्त करते हैं ॥ १६०॥
सर्वंज्ञ देवके द्वारा कहे हुए इस उपदेशको सुनकर भानुकर्ण बहुत ही हर्षित हुआ । उसके
१. सत्त्वधर्मो म. । २. गरुडः । ३. सर्वप्राणभृतः क, ख, म. ।
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