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चतुर्दशं पर्व गृहधर्ममिर्म कृत्वा समाधिप्राप्तपञ्चतः । प्रपद्यते सुदेवत्वं च्युत्वा च सुमनुष्यताम् ॥२०३॥ भवानामेवमष्टानामन्तः कृत्वानुवर्तनम् । रत्नत्रयस्य निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते ॥२०४॥ नरत्वं दुर्लभं प्राप्य यथोक्ताचरणाक्षमः । श्रद्दधाति जिनोक्तं यः सोऽप्यासनशिवालयः ॥२०५॥ सम्यग्दर्शनलाभेन केवलेनापि मानवः । सर्वलामवरिष्ठेन दुर्गतित्रासमुज्झति ॥२०६॥ कुरुते यो जिनेन्द्राणां नमस्कार स्वभावतः । पुण्याधारः स पापस्य लवेनापि न युज्यते ॥२०७॥ यः स्मरत्यपि भावेन जिनांस्तस्याशुभं क्षयम् । सद्यः समस्तमायाति भवकोटिभिरर्जितम् ॥२०॥ प्रशस्ताः सततं तस्य ग्रेहाः स्वप्नाः शकुन्तयः । त्रैलोक्यसाररत्नं यो दधाति हृदये जिनम् ॥२०९॥ अर्हते नम इत्येतत्प्रयुक्रे यो वचो जनः । भावात्तस्याचिरात् कृत्स्नकर्ममुक्तिरसंशया ॥२१॥ जिनचन्द्रकथारश्मिसंगमादेति फुल्लताम् । सिद्धियोग्यासुमत्स्वान्तःकुमुदं परमामलम् ॥२११॥ अर्हसिद्धमुनिभ्यो यो नमस्यां कुरुते जनः । स परीतभवो ज्ञेयः सुशासनजनप्रियः ॥२१२॥ जिनबिम्बं जिनाकारं जिनपूजां जिनस्तुतिम् । यः करोति जनस्तस्य न किंचिद् दुर्लभं भवेत् ॥२१३॥ नरनाथः कुटुम्बी वा धनाढ्यो दुर्विधोऽथवा । जनो धर्मेण यो युक्तः स पूज्यः सर्वविष्टपे ॥२१४॥ महाविनयसंपन्नाः कृत्याकृत्यविचक्षणाः । जनाः गृहाश्रमस्थानां प्रधाना धर्मसंगमात् ॥२१५॥
मधुमांससुरादीनामुपयोग न कुर्वते । ये जनास्ते गृहस्थानां ललामत्वे प्रतिष्टिताः ॥२१६॥ विरक्त होता है उसे नियम कहा है ॥२०२॥ इस गृहस्थ धर्मका पालन कर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तमदेव पर्यायको प्राप्त होता है और वहाँसे च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है ॥२०३।। ऐसा जीव अधिकसे अधिक आठ भवोंमें रत्नत्रयका पालन कर अन्तमें निर्ग्रन्थ हो सिद्धिपदको प्राप्त होता है ॥२०४।। जो दुर्लभ मनुष्यपर्याय पाकर यथोक्त आचरण करने में असमर्थ है, केवल जिनेन्द्रदेवके द्वारा कथित आचरणकी श्रद्धा करता है वह भी निकट कालमें
त प्राप्त करता है ॥२०५|| जिसका लाभ सब लाभोंमें श्रेष्ठ है ऐसे केवल सम्यग्दर्शनके द्वारा भी मनुष्य दर्गतिके भयसे छट जाता है ॥२०६।। जो स्वभावसे ही जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार कर है वह पुण्यका आधार होता है तथा पापके अंशमात्रका भी उससे सम्बन्ध नहीं होता ॥२०७।। नमस्कार तो दूर रहा जो जिनेन्द्र देवका भावपूर्वक स्मरण भी करता है उसके करोड़ों भवोंके द्वारा संचित पाप कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।।२०८॥ जो मनुष्य तीन लोकमें श्रेष्ठ रत्नस्वरूप जिनेन्द्र देवको हृदयमें धारण करता है उसके सब ग्रह, स्वप्न और शकुनकी सूचना देनेवाले पक्षी सदा शुभ ही रहते हैं ॥२०९॥ जो मनुष्य 'अहंते नमः' अहंन्तके लिए नमस्कार हो, इस वचनका भावपूर्वक उच्चारण करता है उसके समस्त कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है ॥२१०|| जिनेन्द्र चन्द्रकी कथारूपी किरणोंके समागमसे भव्य जीवका निर्मल हृदयरूपी कुमुद शीघ्र ही प्रफुल्ल अवस्थाको प्राप्त होता है ॥२११॥ जो मनुष्य अर्हन्त सिद्ध और मुनियोंके लिए नमस्कार करता है वह जिनशासनके भक्त जनोंसे स्नेह रखनेवाला अतीतसंसार है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करनेवाला है ऐसा जानना चाहिए ॥२१२॥ जो पुरुष जिनेन्द्र देवकी प्रतिमा बनवाता है, जिनेन्द्र देवका आकार लिखवाता है, जिनेन्द्र देवकी पूजा करता है अथवा जिनेन्द्रदेवकी स्तुति करता है उसके लिए संसारमें कुछ भी दुर्लभ नहीं होता ॥२१३।। यह मनुष्य चाहे राजा हो चाहे साधारण कुटुम्बी, धनाढय हो चाहे दरिद्र, जो भी धर्मसे युक्त होता है वह समस्त संसारमें पूज्य होता है ॥२१४॥ जो महाविनयसे सम्पन्न तथा कार्य और अकार्यके विचारमें निपुण हैं वे धर्मके समागमसे गृहस्थोंमें प्रधान होते हैं ॥२१५।। जो मनुष्य मधु, मांस और मदिरा आदिका उपयोग नहीं करते हैं वे गृहस्थोंके आभूषण पद १. समाधिप्राप्तमरणः । २. मध्ये । ३. गृहाः सर्वे शकुन्तयः म.। ४. त्रैलोक्यं साररत्नं म. । ५. भव्यप्राणिहृदयकुमुदम् । ६. परमालयम् म. । ७. अलंकारत्वे ।
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