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पद्मपुराणे
वितथव्याहृतासक्ताः परस्वहरणोद्यताः । पतन्ति नरके घोरे प्राणिनः शरणोज्झिताः ॥ २८ ॥ येन येन प्रकारेण कुर्वते मांसभक्षणम् । तेनैव ते विधानेन मक्ष्यन्ते नरके परैः ॥ २९ ॥ महापरिग्रहोपेता महारम्भाश्च ये जनाः । प्रचण्डाध्यवसायास्ते वसन्ति नरके चिरम् ॥३०॥ साधूनां द्वेषकाः पापा मिथ्यादर्शनसंगताः । रौद्रध्यानमृता जीवा गच्छन्ति नरकं ध्रुवम् ॥३१॥ कुठारैरसिभिश्चक्रः करपत्रैर्विदारिताः । अन्यैश्व विविधैः शस्त्रैस्तीक्ष्णतुण्डैश्च पक्षिभिः ॥३२॥ सिंहैर्व्याघ्रैः श्वभिः सर्वैः शरभैर्वृश्विकैकैः । अन्यैश्च प्राणिभिश्चित्रैः प्राप्यन्ते दुःखमुत्तमम् ॥३३॥ नितान्तं ये तु कुर्वन्ति संगं शब्दादिवस्तुनि । मायिनस्ते प्रपद्यन्ते तिर्यक्त्वं प्राणधारिणः ॥३४॥ परस्परवधास्तत्र शस्त्रैश्च विविधैः 'क्षताः । प्रपद्यन्ते महादुःखं वाहदाहादिभिस्तथा ॥ ३५ ॥ सुप्तमेतेन जीवेन स्थलेऽम्भसि गिरौ तरौ । गहनेषु च देशेषु भ्राम्यता भवसंकटे ॥३६॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चहृषीककृतसंगतिः । अनादिनिधनो जन्तुः सेवते मृत्युजन्मनी ॥३७॥ तिलमात्रोऽपि देशोऽसौ नास्ति यत्र न जन्तुना । प्राप्तं जन्म विनाशो वा संसारावर्तपातिना ॥ ३८॥ मार्दवेनान्विताः केचिदार्जवेन च जन्तवः । स्वभाव लब्धसंतोषाः प्रपद्यन्ते मनुष्यताम् ॥३९॥ क्षणमात्रसुखस्यार्थे हित्वा पापं प्रकुर्वते । श्रेयः परमसौख्यस्य कारणं मोहसंगताः ॥ ४० ॥ आर्या म्लेच्छाश्च तत्रापि जायन्ते पूर्वकर्मतः । तथा केचिद्धनेनान्याः केचिदस्यन्तदुर्विधाः ॥४१॥
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मक्खियों का घात करनेवाले तथा वनमें आग लगानेवाले दुष्ट चाण्डाल निरन्तर हिंसा में तत्पर रहनेवाले पापी कहार और नीच शिकारी, झूठ वचन बोलने में आसक्त एवं पराया धन हरण करने में उद्यत प्राणी शरणरहित हो भयंकर नरक में पड़ते हैं ॥२७-२८ || जो मनुष्य जिस-जिस प्रकार से मांस भक्षण करते हैं नरकमें दूसरे प्राणी उसी उसी प्रकारसे उनका भक्षण करते हैं ||२९|| जो मनुष्य बहुत भारी परिग्रहसे सहित हैं, बहुत बड़े आरम्भ करते हैं और तीव्र संकल्प-विकल्प करते हैं वे चिरकाल तक नरकमें वास करते हैं ||३०|| जो साधुओंसे द्वेष रखते हैं, पापी हैं, मिथ्यादर्शन से सहित हैं एवं रौद्रध्यानसे जिनका मरण होता है वे निश्चय ही नरकमें जाते हैं ||३१|| ऐसे जीव नरकों में कुल्हाड़ियों, तलवारों, चक्रों, करोंतों तथा अन्य अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे चीरे जाते हैं। तीक्ष्ण चोंचोंवाले पक्षी उन्हें चूँथते हैं ॥३२॥ सिंह, व्याघ्र, कुत्ते, सर्प, अष्टापद, बिच्छू, भेड़िया तथा विक्रियासे बने हुए विविध प्रकारके प्राणी उन्हें बहुत भारी दुःख पहुँचाते हैं ||३३||
जो शब्द आदि विषयोंमें अत्यन्त आसक्ति करते हैं ऐसे मायावी जीव तियंच गतिको प्राप्त होते हैं ||३४|| उस तिर्यंच गतिमें जीव एक दूसरेको मार डालते हैं । मनुष्य विविध प्रकारके शस्त्रोंसे उनका घात करते हैं तथा स्वयं भार ढोना एवं दोहा जाना आदि कार्योंसे महादुःख पाते हैं ||३५|| संसारके संकट में भ्रमण करता हुआ यह जीव स्थलमें, जलमें, पहाड़पर, वृक्षपर और अन्यान्य सघन स्थानोंमें सोया है || ३६ || यह जीव अनादि कालसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता हुआ जन्म-मरण कर रहा है ||३७|| ऐसा तिलमात्र भी स्थान बाकी नहीं है जहाँ संसाररूपी भँवर में पड़े हुए इस जीवने जन्म और मरण प्राप्त न किया हो ||३८||
यदि कोई प्राणी मृदुता और सरलतासे सहित होते हैं तथा स्वभावसे ही सन्तोष प्राप्त करते हैं तो वे मनुष्य गतिको प्राप्त होते हैं ||३९|| मनुष्य गतिमें भी मोही जीव परम सुखके कारणभूत कल्याण मागंको छोड़कर क्षणिक सुखके लिए पाप करते हैं ||४०|| अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंके अनुसार कोई आयं होते हैं और कोई म्लेच्छ होते हैं । कोई धनाढ्य होते हैं और कोई
१. कृताः ख., म., ब । २. वाहा देहादिभिस्तथा म. । ३. वनेनाद्याः म. ।
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