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चतुर्दशं पर्व
अथ 'नाकाधिपप्रख्यो मोगसंमूढमानसः । यथामिमतनिवृत्तः पददुर्ललितक्रियः ॥१॥ असौ देवाधिपग्राहो' यातो मन्दरमन्यदा । जिनेन्द्र वन्दनां कृत्वा प्रत्यागच्छनिजेच्छया ॥२॥ विभक्तपर्वतान् पश्यन् वास्यानां विविधांघ्रिपान् । सरितश्चातिचक्षुष्याः स्फटिकादपि निर्मलाः ॥३॥ आदित्यभवनाकारविमानस्य विभूषणः । संगतः परया लक्ष्म्या लङ्कासंगमनोत्सुकः ॥४॥ सहसा निनदं तुङ्गं शुश्राव पुरुषतरम् । पप्रच्छ च महाक्षुब्धो मारीचमतिसत्वरः ॥५॥ अयि मारीच मारीच कुतोऽयं निनदो महान् । एताश्च ककुभः कस्मान्महारजतलोहिताः ॥६॥ ततो जगाद मारीचो देव ! देवगमो मुनेः । महाकल्यागसंप्राप्तावेष कस्यापि वर्तते ॥७॥ देवानामेष तुष्टानां नानासंपातकारिणाम् । आकुलो भुवनव्यापी प्रशस्तः श्रूयते ध्वनिः ॥८॥ एताश्च ककुमस्तेषां मुकुटादिमरीचिभिः । निचिता दधते भासं कौसुम्मीमिव भास्वराम् ॥९॥ सुवर्णपर्वतेऽमुष्मिन्ननन्तबलसंज्ञया। कथितो मुनिरुत्पन्नं नूनं तस्याद्य केवलम् ॥१०॥ ततस्तद् वचनं श्रुत्वा सम्यग्दर्शनमावितः । परं पुरंदरग्राहः प्रमोदं प्रतिपनवान् ॥११॥ अवतीर्णश्व खाद्देशाद्विप्रकृष्टान्महाद्युतिः। द्वितीय इव देवेन्द्रो वन्दनाय महामुनेः ॥१२॥ वन्दित्वा तुष्टुवुः साधुमिन्द्रप्राग्रहरास्ततः । आसीनाश्च यथास्थानं बद्धाअलिपुटाः सुराः ॥१३॥
अथानन्तर जो इन्द्र के समान शोभाका धारक था, जिसका मन भोगोंमें मूढ़ रहता था, जिसे इच्छानुसार कार्योंकी प्राप्ति होती थी तथा जिसकी क्रियाएँ शत्रुओंको प्राप्त होना कठिन था ऐसा रावण एक समय मेरुपर्वतपर गया था। वहाँ जिनेन्द्रदेवकी वन्दना कर वह अपनी इच्छानुसार वापस आ रहा था ॥१-२॥ मागमें वह भरतादि क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले एवं अनेक प्रकारके वृक्षोंसे सुशोभित हिमवत् आदि पर्वतोंको तथा स्फटिकसे भी अधिक निर्मल एवं अत्यन्त सुन्दर नदियोंको देखता हुआ चला आ रहा था ॥३॥ सूर्यबिम्बके आकार विमानको अलंकृत कर रहा था, उत्कृष्ट लक्ष्मीसे युक्त था तथा लंकाकी प्राप्तिमें अत्यन्त उत्सुक था ।।४॥ अचानक ही उसने जोरदार कोमल शब्द सुना जिसे सुनकर वह अत्यन्त क्षुभित हो गया। उसने शीघ्र ही मारीचसे पूछा भी ॥५|| अरे मारीच ! मारीच !! यह महाशब्द कहाँसे आ रहा है ? और दिशाएं सुवर्णके समान लाल-पीली क्यों हो रही हैं ।।६।। तब मारीचने कहा कि हे देव ! किसी महामुनिके महाकल्याणकमें सम्मिलित होनेके लिए यह देवोंका आगमन हो रहा है ॥७॥ सन्तोषसे भरे एवं नाना प्रकारसे गमन करनेवाले देवोंका यह संसारव्यापी प्रशस्त शब्द सुनाई दे रहा है ॥८॥ ये दिशाएँ उन्हीके मुकुट आदिकी किरणोंसे व्याप्त होकर कुसुम्भ रंगकी देदीप्यमान कान्तिको धारण कर रही हैं ॥९॥ इस सुवर्णगिरिपर अनन्तबल नामक मनिराज रहते थे जान पड़ता है उन्हें ही आज केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ॥१०॥
तदनन्तर मारीचके वचन सुनकर सम्यग्दर्शनकी भावनासे युक्त रावण परम हर्षको प्राप्त हुआ ॥११॥ महाकान्तिको धारण करनेवाला रावण उन महामुनिकी वन्दना करनेके लिए दूरवर्ती आकाश प्रदेशसे इस प्रकार नीचे उतरा मानो दूसरा इन्द्र ही उतर रहा हो ॥१२।। तत्पश्चात् इन्द्र आदि देवोंने हाथ जोड़कर मुनिराजको नमस्कार किया। स्तुति की और फिर सब यथास्थान १. नाकाभिधप्रख्यो-म. । परदुर्लडितक्रियः क., ख., ब. । ३. रावणः । ४. भरतादिक्षेत्राणाम् । ५. भासुराम् क.।
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