Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 354
________________ ३०४ पद्मपुराणे इत्युक्ते पूर्वजन्मानि स्मरन् विस्मयसंगतः । शक्रः प्रणम्य निर्ग्रन्थमिदमाह महादरः ||१९|| भगवंस्त्वत्प्रसादेन लब्ध्वा बोधिमनुत्तमाम् । सांप्रतं दुरितं सर्वं मन्ये व्यक्तमिव क्षणात् ॥ १०० ॥ साधोः संगमनाल्लोके न किंचिद् दुर्लभं भवेत् । बहुजन्मसु न प्राप्ता बोधिर्येनाधिगम्यते ॥ १०१ ॥ इत्युक्वा वन्दितस्तेन मुनिर्यातो यथेप्सितम् । शक्रोऽपि परमं प्राप्तो निर्वेदं गृहवासतः ।। १०२ ।। पुण्यकर्मोदयज्ज्ञात्वा रावणं परमोदयम् । स्तुत्वा च वीर्यदंष्ट्राय महाभूभृत्तटक्षितौ ॥ १०३ ॥ जलबुद्बुदनिस्सारामवबुध्य मनुष्यताम् । कृत्वा सुनिश्चलां धर्मे मतिं निन्दन् दुरोहितम् ||१०४ || श्रियमिन्द्रः सुते न्यस्य महात्मा रथनूपुरे । ससुतो लोकपालानां समूहेन समन्वितः ॥ १०५ ॥ दीक्षां जैनेश्वरीं प्राप सर्वकर्मविनाशिनीम् । विशुद्ध मानसोऽत्यन्तं त्यक्तसर्वपरिग्रहः ॥ १०६ ॥ ततस्तत्तादृशेनापि भोगेनाप्युपलालितम् । वपुस्तस्य तपोभारमुवाहेतरदुर्वहम् ॥ १०७ ॥ प्रायेण महतां शक्तिर्यादृशी रौद्रकर्मणि । कर्मण्येवं विशुद्धेऽपि परमा चोपजायते || १०८ || दीर्घकालं तपस्ता विशुद्ध ध्यानसंगतः । कर्मणां प्रक्षयं कृत्वा निर्वाणं वासवोऽगमत् ।। १०९ ।। दोधकवृत्तम् पश्यत चित्रमिदं पुरुषाणां चेष्टितमूर्जितवीर्य समृद्धम् । चिरकालमुपार्जितभोगा यान्ति पुनः पदमुत्तमसौख्यम् ॥११०॥ पुण्य पापरूप फलका विचारकर अपनी बुद्धि धर्म में धारण करो और अपने आपको दु:खोंसे बचाओ ||९८|| इस प्रकार मुनिराजके कहनेपर इन्द्रको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया । उन्हें स्मरण करता हुआ वह आश्चर्यको प्राप्त हुआ । तदनन्तर बहुत भारी आदरसे भरे इन्द्रने निर्ग्रन्थ मुनिराजको नमस्कार कर कहा कि ||१९|| हे भगवन् ! आपके प्रसादसे मुझे उत्कृष्ट रत्नत्रयकी प्राप्ति हुई है इसलिए मैं मानता हूँ कि अब मेरे समस्त पाप मानो क्षण भरमें ही छूट जानेवाले हैं ॥ १०० ॥ जो बोधि अनेक जन्मोंमें भी प्राप्त नहीं हुई वह साधु समागमसे प्राप्त हो जाती है सलिए कहना पड़ता है कि साधुसमागमसे संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती ॥ १०१ ॥ इतना कहकर निर्वाण संगम मुनिराज तो उधर इन्द्रके द्वारा वन्दित हो यथेच्छ स्थानपर चले गये इधर इन्द्र भी गृहवाससे अत्यन्त निर्वेदको प्राप्त हो गया ॥ १०२ ॥ | उसने जान लिया कि रावण पुण्यकर्मके उदयसे परम अभ्युदयको प्राप्त हुआ है । उसने महापर्वतके तटपर विद्यमान वीर्यदंष्ट्रकी बार-बार स्तुति की ॥ १०३ ॥ मनुष्य पर्यायको जलके बबूलाके समान निःसार जानकर उसने धर्ममें अपनी बुद्धि निश्चल की । अपने पाप कार्योंकी बार-बार निन्दा को ॥ १०४ ॥ | इस प्रकार महापुरुष इन्द्रने रथनू पुर नगरमें पुत्रके लिए राज्य सम्पदा सौंपकर अन्य अनेक पुत्रों तथा लोकपालोंके समूह के साथ समस्त कर्मोंको करनेवाली जैनेश्वरी दोक्षा धारण कर ली । उस समय उसका मन अत्यन्त विशुद्ध था तथा समस्त परिग्रहका उसने त्याग कर दिया था ।। १०५ - १०६ ।। यद्यपि उसका शरीर इन्द्रके समान लोकोत्तर भोगोंसे लालित हुआ था तो भी उसने अन्यजन जिसे धारण करनेमें असमर्थं थे ऐसा तपका भार धारण किया था ||१०७ || प्रायः करके महापुरुषोंकी रुद्र कार्योंमें जेसी अद्भुत शक्ति होती है वैसी ही शक्ति विशुद्ध कार्यों में भी उत्पन्न हो जाती है || १०८ || तदनन्तर दीर्घ काल तक तपकर शुक्ल ध्यानके प्रभावसे कर्मोंका क्षय कर इन्द्र निर्वाण धामको प्राप्त हुआ || १०९ || गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि राजन् ! देखो, बड़े पुरुषोंके चरित्र अतिशय शक्तिसे सम्पन्न तथा आश्चयं उत्पन्न करनेवाले हैं। ये चिर काल तक भोगोंका उपार्जन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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