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त्रयोदशं पर्व
३०३ आहल्यारमणः स त्वं कामभोगातिवत्सलः । अधुना किं स्थितोऽस्येवमिति भाषणकारिणा ॥ ८४ ॥ वष्टितो रज्जुभिः क्षोणीधरनिष्कम्पविग्रहः । तत्त्वार्थं चिन्तनासंगनितान्तस्थिरमानसः ॥ ८५ ॥ दृष्ट्वाभिभूयमानं तं त्वयास्य निकटस्थितः । कल्याणसंज्ञको भ्राता साधुः क्रोधेन दुःखितः ॥ ८६ ॥ संहृत्य प्रतिमायोगमृद्धि प्राप्तः स ते ददौ । शापमेवमलं दीर्घ निश्वस्योष्णं च दुःखितः ॥८७॥ अयं निरपराधः संस्त्वया यन्मुनिपुङ्गवः । तिरस्कृतस्तदत्यन्तं तिरस्कारमवाप्स्यसि ॥ ८८ ॥ निश्वासेनामितेनासीद्दग्धुमेव निरूपितः । सर्वश्रीसंज्ञया किंतु शामितस्तव कान्तया ||८९|| सम्यग्दृष्टिरलं सा हि साधुपूजनकारिणी । मुनयोऽपि वचस्तस्याः कुर्वते साधुचेतसः ||१०|| यदि नाम तया साध्व्या नासौ नीतः शमं भवेत् । ततस्तस्य स कोपाग्निः केन शक्येत वारितुम् ॥९१॥ लोकत्रयेऽपि तन्नास्ति तपसा यह साध्यते । बलानां हि समस्तानां स्थितं मूर्ध्नि तपोबलम् ॥९२॥ न सा त्रिदशनाथस्य शक्तिः कान्तिर्द्युतिर्धृतिः । तपोधनस्य या साधोर्यथाभिमतकारिणः ॥९३॥ विधाय साधुलोकस्य तिरस्कारं जना महत् । दुःखमत्र प्रपद्यन्ते तिर्यक्षु नरकेषु च ॥ ९४ ॥ मनसापि हि साधूनां पराभूतिं करोति यः । तस्य सा परमं दुःखं परत्रेह च यच्छति ||१५|| यस्त्वाक्रोशति निर्ग्रन्थं हन्ति वा क्रूरमानसः । तत्र किं शक्यते वक्तुं जन्तौ दुष्कृतकर्मणि ॥९६॥ कायेन मनसा वाचा यानि कर्माणि मानवाः । कुर्वते तानि यच्छन्ति निकचानि फलं ध्रुवम् ॥९७॥ कर्मणामिति विज्ञाय पुण्यापुण्यात्मिकां गतिम् । दृढां कृत्वा मतिं धर्मे स्वमुत्तारय दुःखतः ||९८||
थी ऐसे तूने क्रीड़ा करते हुए अहंकारवश उसकी बार-बार हँसी की थी ॥८३॥ तू कह रहा था कि अरे ! तू तो कामभोगका अतिशय प्रेमी आहल्याका पति है, इस समय यहाँ इस तरह क्यों बैठा है ? || ८४|| ऐसा कहकर तूने उन्हें रस्सियोंसे कसकर लपेट लिया फिर भी उनका शरीर पर्वत के समान निष्कम्प बना रहा और उनका मन तत्त्वार्थको चिन्तनामें लीन होनेसे स्थिर रहा आया ||८५ || इस प्रकार आनन्दमाल मुनि तो निर्विकार रहे पर उन्हींके समीप कल्याण नामक दूसरे मुनि बैठे थे जो कि उनके भाई थे तेरे द्वारा उन्हें अनादृत होता देख क्रोध से दुःखी हो गये ॥ ८६ ॥ वे मुनि ऋद्धिधारी थे तथा प्रतिमायोगसे विराजमान थे सो तेरे कुकृत्यसे दुःखी होकर उन्होंने प्रतिमायोगका संकोचकर तथा लम्बी और गरम श्वास भरकर तेरे लिए इस प्रकार शाप
॥८७॥ कि चूँकि तूने इन निरपराध मुनिराजका तिरस्कार किया है इसलिए तू भी बहुत भारी तिरस्कारको प्राप्त होगा || ८८ || वे मुनि अपनी अपरिमित श्वाससे तुझे भस्म ही कर देना चाहते
पर तेरी सर्वश्रीनामक स्त्रीने उन्हें शान्त कर लिया || ८९ || वह सर्वश्री सम्यग्दर्शनसे युक्त तथा मुनिजनों की पूजा करनेवाली थी इसलिए उत्तम हृदयके धारक मुनि भी उसकी बात मानते थे ||२०|| यदि वह साध्वी उन मुनिराजको शान्त नहीं करती तो उनकी क्रोधाग्निको कौन रोक सकता था ? ॥ ९१ ॥ तीनों लोकोंमें वह कार्य नहीं है जो तपसे सिद्ध नहीं होता हो । यथार्थ में तपका बल सब बलोंके शिरपर स्थित है अर्थात् सबसे श्रेष्ठ है ॥ ९२ ॥ इच्छानुकूल कार्यं करनेवाले तपस्वी साधुकी जैसी शक्ति, कान्ति, द्युति, अथवा धृति होती है वैसी इन्द्रकी भी सम्भव नहीं है ||१३|| जो मनुष्य साधुजनोंका तिरस्कार करते हैं वे तियंच गति और नरक गतिमें महान् दुःख पाते हैं ||२४|| जो मनुष्य मनसे भी साधुजनोंका पराभव करता है वह पराभव उसे परलोक तथा इस लोक में परम दुःख देता है ||१५|| जो दुष्ट चित्तका धारी मनुष्य निर्ग्रन्थ मुनिको गाली देता है अथवा मारता है उस पापी मनुष्य के विषय में क्या कहा जाय ? | | ९६ || मनुष्य मन वचन कायसे जो कर्म करते हैं वे छूटते नहीं हैं और प्राणियों को अवश्य ही फल देते हैं ||१७|| इस प्रकार कर्मोंके
१. वज्रस्त्वस्याः म. ।
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