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चतुर्दशं पर्व
३०७ रावणोऽपि नमस्कृत्य स्तुत्वा चोदात्तभक्तितः । विद्याधरजनाकीर्णः स्थितः समुचितावनौ ॥१४॥ ततश्चतुर्विधैर्देवैस्तिर्यम्भिर्मनुजैस्तथा । कृतशंसं मुनिश्रेष्ठः शिष्येणैवमपृच्छयत ॥१५॥ भगवन् ज्ञातुमिच्छन्ति धर्माधर्मफलं जनाः । समस्ता मुक्तिहेतुं च तत्सर्व वक्तुमर्हथ ॥१६॥ ततः सुनिपुणं शुद्धं विपुलार्थ मिताक्षरम् । अप्रवृष्यं जगी वाक्यं यतिः सर्वहितप्रियम् ।।१७॥ कर्मणाष्टप्रकारेण संततेन निरादिना । बद्धनान्तहितात्मीयशक्तिम्यिति चेतनः ॥१८॥ सुभूरिलक्षसंख्यासु योनिष्वनुभवेन्सदा । वेदनीयं यथोपात्तं नानाकरणसंभवम् ।। १९॥ रक्तो द्विष्टोऽथवा मूढो मन्दमध्यविपाकतः । कुलालचक्रवत्प्राप्तचतुर्गतिविवर्तनः ॥२०॥ बुध्यते स्वहितं नासौ ज्ञानावरणकर्मणा । मनुष्यतामपि प्राप्तोऽत्यन्तदुर्लमसंगमाम् ॥२१॥ रसस्पर्शपरिग्राहिहृषीकवशतां गताः । कृत्वातिनिन्दिवं कर्म पापभारगुरूकृताः ॥२२॥ अनेकोपायसंभूतमहादुःखविधायिनि । पतन्ति नरके जीवा ग्रावाण इव वारिणि ॥२३॥ मातरं पितरं भ्रातन् सुतां पत्नी सुहृजनान् । धनादिचोदिताः केचिद् विश्वनिन्दितमानसाः ॥२४॥ गर्भस्थानकान् वृद्धास्तरुणान् योषितो नराः । घ्नन्ति केचिन्महाकरा मानुषान् पक्षिणो मृगान् ॥२५॥ स्थलजान् जलजान् धर्मच्युतचित्ताः कुमेधसः । मीत्वा' पतन्ति ते सर्वे नरके पुरुवेदने ॥२६॥
मधुघातकृतश्चण्डाश्चाण्डाला वनदाहिनः । हिंसापरायणाः पापाः कैवर्ताधमलुब्धकाः ॥२७॥ बैठ गये ॥१३॥ विद्याधरोंसे युक्त रावण भी बड़ी भक्तिसे नमस्कार एवं स्तुति कर योग्य भूमिमें बैठ गया ॥१४॥ तदनन्तर विनीत शिष्यके समान रावणने मुनिराजसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! समस्त प्राणी धर्म-अधर्मका फल और मोक्षका कारण जानना चाहते हैं सो आप यह सब कहनेके योग्य हैं। रावणके इस प्रश्नकी चारों प्रकारके देवों, मनुष्यों और तियंचोंने भारी प्रशंसा की ॥१५-१६।। तदनन्तर मुनिराज निम्न प्रकार वचन कहने लगे। उनके वे वचन निपुणतासे युक्त थे, शुद्ध थे, महाअर्थसे भरे थे, परिमित अक्षरोंसे सहित थे, अखण्डनीय थे और सर्वहितकारी तथा प्रिय थे॥१७॥
उन्होंने कहा कि अनादिकालसे बँधे हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मोसे जिसकी आत्मीय शक्ति छिप गयो है ऐसा यह प्राणी निरन्तर भ्रमण कर रहा है ॥१८॥ अनेक लक्ष योनियोंमें नाना इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखका सदा अनुभव करता रहता है ।।१९॥ कर्मोंका जब जैसा तोत्र, मन्द या मध्यम उदय आता है वैसा रागी, द्वेषी अथवा मोही होता हुआ कुम्हारके चक्रके समान चतुर्गतिमें घूमता रहता है ।।२०। यह जीव अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्यायको भी प्राप्त कर लेता है फिर भी ज्ञानावरण कर्मके कारण आत्महितको नहीं समझ पाता है ।।२१॥ रसना और स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत हुए प्राणी अत्यन्त निन्दित कार्य करके पापके भारसे इतने वजनदार हो जाते हैं कि वे अनेक साधनोंसे उत्पन्न महादुःख देनेवाले नरकोंमें उस प्रकार जा पड़ते हैं जिस प्रकार कि पानीमें पत्थर पड़ जाते हैं-डूब जाते हैं ॥२२-२३।। जिनके मनकी सभी निन्दा करते हैं ऐसे कितने ही मनुष्य धनादिसे प्रेरित होकर माता, पिता, भाई, पुत्री, पत्नी, मित्रजन, गर्भस्थ बालक, वृद्ध, तरुण एवं स्त्रियोंको मार डालते हैं तथा कितने ही महादुष्ट मनुष्य मनुष्यों, पक्षियों और हरिणोंकी हत्या करते हैं ॥२४-२५॥ जिनका चित्त धर्मसे च्युत है ऐसे कितने ही दुर्बुद्धि मनुष्य स्थलचारी एवं जल चारी जीवोंको मारकर भयंकर वेदनावाले नरकमें पड़ते हैं ॥२६॥ मधु
१. स भूरि-क. । २. -ष्वनुभवत् ख., म., ब.। ३. स्वहितान्नासौ ख.। ४. संज्ञकम् म.। ५. गतः म. । ६. कृतः म. । ७. घ्नन्ति निर्दयमानसाः ख.। ८. मानसाः म.। ९. धर्मगतचित्तान् कुचेतसः म.। धर्मगतचित्ताः कुमेधसः ख., क. । १०. मारयित्वा । ११. कृतश्चामी म.।
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